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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
कहते हैं ।।
मुक्ति : निर्वाण
जैनदर्शन में निर्वाण का बड़ा महत्त्व है और अध्यात्म दृष्टि से साधक का इसे प्राप्त करना ही मुख्य उद्देश्य है। मुक्ति, मोक्ष और निर्वाण ये सभी एकार्थक हैं । निर्वाण शब्द, निर उपसर्ग पूर्वक 'वा' धातु से 'क्त' प्रत्यय लगकर बनता है, जिसका अर्थ है-माया या प्रकृति से मुक्ति पाकर परमात्मा से मिल जाना या शाश्वत आनन्द को प्राप्त करना । जैनदर्शन में रत्नत्रय-सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्चारित्र से ही मोक्ष>निर्वाण होता है। इसके अतिरिक्त उत्तराध्ययनसूत्र में तप को भी मोक्ष का कारण बतलाया है । यह निखिल कर्मों का क्षय रूप है । बौद्ध इसे तृष्णा का क्षय बतलाते हैं। वे इसे अस्तंगम, विराग और निरोध भी कहते हैं।
द्वेषादि भावों के कारण यह आत्मा चतुगति रूप संसार में जन्म मरण करता है । द्वषादि जन्य विकारी भाव जब साधना से दूर हो जाते हैं तब वह स्वभाव में स्थित हो जाता है। इसकी स्वस्वरूप, उपलब्धि ही निर्वाण है।
यहां ध्यान देना चाहिए कि तेरहवें गुणस्थान अथवा सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान में योग (क्रिया) की प्रवृत्ति रहने के कारण केवलज्ञान की प्राप्ति होते हुए भी मुक्ति नहीं होती। अतः जब सम्पूर्ण योग (क्रिया) का पूर्ण निरोधरूप चारित्र सम्पन्न होता है तभी मोक्ष अथवा निर्वाण होता है।
१. संघवी, तत्त्वार्थसूत्र, पृ० १६.३-१६४ २. दे० आप्टे-संस्कृत हिन्दी कोश पृ० ५३६ ३. तत्त्वार्थसूत्र १.२ ४. नाणं च दंसणं चेब चरित्तं च तवो तहा।
एस मग्गोत्ति पन्नत्तो जिणेहि वरदस्सिहि ॥ उत्तरा० २८.२ ५. (क) मोक्षः कर्मक्षयो नाम भोगसंक्लेशवर्जितः । पूर्वसेवाद्वात्रिंशिका, गा० २२
जैनयोग का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० २२८ पर उद्धृत (ख) बन्धहेत्वाभावनिर्जराभ्याम् कृत्स्नकर्मक्षयो मोक्षः। तत्त्वार्थसूत्र १,२-३
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