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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन ही जान लेता है । अतः इसे मनः पर्याय ज्ञान कहा जाता है ।। बौद्धधर्म में भी ऐसा हो चेतोपरिवित्तज्ञान बतलाया गया है। केवलज्ञान
यह एक मात्र विशुद्ध, निर्मल, परिपूर्ण, असाधारण एवं ऐसा अनन्तज्ञान है। यह ज्ञान साधक को कठिनाई से उपलब्ध होता है । इसके प्राप्त होने पर साधक भव-बन्धन से मुक्त हो जाता है ।
__ जो एक है, उसे किसी भी इन्द्रिय या मन की ओझा नहीं होती। केवलज्ञान के होते ही कर्मो का आवरणरूप मल पूर्ण रूप से नष्ट हो जाता है और आत्मस्वरूप में प्रतिष्ठित हो जाता है। यह सर्वद्रव्य एवं सर्वपर्यायों को प्रकाशित करने वाला, एकमात्र अप्रतिपातो ओर शाश्वतज्ञान है । यही आत्मा का स्वभाविक गुण भी है।
केवलज्ञान दो प्रकार का होता है-भवार्थ केवलज्ञान और सिद्ध केवलज्ञान । भवार्थ केवलज्ञान के पुनः दो भेद हो जाते हैं-संयोगी केवली और अयोगो केवली। कार वणित पांचों ज्ञानों में से प्रथम दो परोक्ष और शेष सभी प्रत्यक्षज्ञान होते हैं । सम्यक्चारित्र
कमों के चिरसंचित कोश को रिक्त करना ही सम्यक्चारित्र कहलाता है। आचार्य कुन्दकुन्द ने मोह और क्षोभ से रहित अर्थात् १. पज्जवणं पज्जवणं पज्जाओ वा मणम्मि माणसो वा ।
तस्स व पज्जयापि नाणं मणपज्जवं नाणं ।। प्रशर नरति, भाग-२, पु० ५६
पर उद्धृत २. केव-नमेगं युद्धं सगलमसाहारणं अणन्तं च (विशेषावश्यक भाष्य), प्रशमरति
भाग २, पृ० ५६ पर उद्धत ३. अह तबदवपरिणाम भावनिण्णत्तिकारणमणतं ।
सासयमप्यडिवाई एगविहं केवलं नाणं । नन्दीसूत्र गा० ६६ ४. आत्मनः स्वभाव एतत् केवलज्ञानम् । प्रशमरति, भाग-२, पृ० २६७ ५. केवलनाणं दुविहं पण्णतं; तं जहा-भवत्य केवलनाणं च, सिद्धकेवलनाणं च । . भवत्यकैवलनाणं दुविहं पण्णतं, तं जहा-सजोगिभवत्य केवलनाणं च,
अयोगिभवत्य केवलनाणं च ॥ नन्दीसूत्र, सूत्र १६ ६. तं तमासओ दुविहं पणतं, तं जहा-पच्चक्खं च परोक्खं । च । नन्दीसूत्र सूत्र २ ७. एयं चयस्तिकरं चारित्तं होई आहियं । उत्तरा०सू० २८.३३
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