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योगबिन्दु एवं तत्त्वविश्लेषण
(घ) योग : योगफल > ज्ञान एवं मुक्ति
योगसाधन का फल विशदज्ञान और उससे मुक्ति अथवा निर्वाण का लाभ है । यथार्थ ज्ञान की उपलिब्ध के लिए दर्शन और चारित्र का भो सम्यक् होना अत्यन्त आवश्यक है और मुक्ति मार्ग भी हैं— सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राण मोक्षमार्गः । जैन दृष्टि से यहां हम इसी मार्ग का अध्ययन करेंगे—
(१) सम्यग्दर्शन :
जैनधर्म में सम्यग्दर्शन मुक्ति का प्रथम सोपान है | सम्यग्दर्शन की व्याख्या करते हुए उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि
जीवाजीवाय बन्धो य पुण्यं पावासवी तहा । संवरो निज्जरो मोक्खो सन्तेए तहिया नव ॥ तहियाणं तु भावाणं सव्भावे उवएसणं । भावेणं सद्दहंतस्स सम्मत्त ं वियाहियं ॥
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इस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् द्वारा प्ररूपित जीवादि नौ तत्वों में भावपूर्ण श्रद्धा करना ही सभ्यग्दर्शन है ।
पंचध्याय में आता है कि यदि श्रद्धा, प्रतीति, रुचि आदि गुण स्वानुभूति सहित हैं तभी वह सम्यग्दर्शन हो सकता है अन्यथा वह लक्षणाभास ही है, क्योंकि स्वानुभूति के बिना श्रद्धा केवल शास्त्रों अथवा गुरु आदि के उपदेश के श्रवण से होती है और वह तत्वार्थ के अनुकूल होते हुए भी वास्तविक शुद्ध श्रद्धा अथवा सम्यग्दर्शन नहीं कहला सकती ।"
१.
उत्तरा० २८.१४-१५
तथ। मिला० (क) सुत्थ्यं जिणभणियं जीवाजीवादिबहुविहं अत्थं हेयाहे यं च तहा जो जाणइ सोहु सुदिट्ठी । सूत्रप्राभृत, गा० ५
(ख) तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । जीवाजीवास्रवबन्धसं वरनिर्जरामोक्षास्तस्वम् तत्त्वार्थ सूत्र, १,२-४
(ग) अथवा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वम् अशुद्ध तरनयसमाश्रयणात् ।
षट्खण्डागम, पुस्तक १, पृ० १५१
स्वानुभूति सनाथाश्चत् सन्ति श्रद्धादयो गुणाः ।
स्वानुभूति विनाऽऽभासा, नार्धाच्छ्रद्धादयो गुणाः ॥ बिनास्वानुभूति तु या श्रद्धाश्रुतमात्रतः । तत्त्वानुगताऽप्ययाच्छ्रद्धानानुपलव्धितः ॥ पंचाध्यायी उत्तरार्ध, श्लोक ४१५-२१
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