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योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
हैं जबकि आर्त ध्यान में उपगत जीव के लेश्या कम संक्लिष्ट होती है। धर्म्य और शक्ल ध्यान में अवशिष्ट शुभ लेश्याएं होती हैं किन्तु किसमें कौन लेश्या होती है, यह स्पष्ट वर्णन नहीं मिलता। चौदहवें गुणस्थान में जब जीव अयोगी और अलेशी हो जाता है तब भी उसके शुक्लध्यान का चौथा समच्छिन्न क्रियाप्रतिपातीभेद होता है किन्तु यहां उसके कोई लेश्या नहीं होती।
गुणस्थानों में प्रथम से लेकर छठवें गुणस्थान तक छहों लेश्याएं होती हैं किन्तु सप्तम में अन्तिम तीन और आठवें से बारहवें तक एकमात्र शक्ल लेश्या होती है तथा तेरहवें गणस्थान में भी एकमात्र शक्ल लेश्या पायी जाती है। जबकि ११वें गणस्थान से ऊपर के गणस्थानों में कषाय का पूर्णतः अभाव हो जाता है फिर भी भूतपूर्व प्रज्ञापननय की अपेक्षा से वहां लेश्या का सद्भाव बना रहता है क्योंकि उक्त गुणस्थानों में जो योगधारा पहले कषाय से अनुरजित थी वही अब भी बह रही है। अतएव उपशान्तकषाय, क्षीणकषाय और सयोगकेवली के शुक्ललेश्या का होना बतलाया गया है । अयोगके वली के इस प्रकार का कोई योग ही नहीं है । इस कारण वे लेश्यारहित होते हैं।
इस तरह लेश्या और कषाय का प्रगाढ सम्बन्ध है और वे सत्त्व के मन में उठने वाले शुभ-अशुभ परिणामों की द्योतक हैं। सत्त्व के जन्म के साथ उनका आविर्भाव होता है और उसी के साथ वे विलय को प्राप्त होती हैं । सत्त्व मृत्यु समय में जिस जिस प्रकार के विचार करता है उन्हें उस-उस प्रकार की लेश्याएं पुनर्जन्म में प्राप्त होती हैं।
१. भगवती सूत्र, २५.७.५१-५२ २. दे. तत्त्वार्थवार्तिक, २.६, पृ० १०६
तथा अत्र कश्चित् उपशान्तकषायक्षीणकषाययोः सयोगकेवलिनि च शुक्ललेश्या वर्तत इति सिद्धान्तवचन मिति तेषां कषायानुरजनभावाभावसद्भार्वादायिको भावः कथं घटते । सत्यम् पूर्वभाव प्रज्ञापनापेक्षया कषायानुरञ्जिता योगप्रवृत्ति सैवोच्यते । कस्मात् ? भूतपूर्वकस्तद्वदुपचार इति परिभाषणात् । योगाभावाद् अयोग-केवली अलेश्य इति निर्णीयते ।। तत्त्वार्थवृत्ति, २.६, पृ० ८५
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