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________________ 226 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन शुक्लध्यान के आलम्बन कोई भी आत्मा उन्नति के शिखर पर किसी न किसी आलम्बन से ही पहुंच सकता है । जब तक पूर्ण विकास नहीं हो जाता तब तक साधक को आलम्बन की आवश्यकता रहती है। शुक्लध्यानी के चार आलम्बन होते हैं और वे हैं-क्षमा, मार्दव, आर्जव और सन्तोष । (१) क्षमा क्रोध के अभाव में उत्पन्न होने वाले गण को क्षमा कहते हैं। किसी के द्वारा प्राणान्तकारी व्यथा देने पर भी उस पर क्रोध न करना, अपितु उसका हित चिन्तन करना, उसे उपकारी समझकर कृतज्ञता प्रकट करना, उससे मैत्रीभाव स्थापित करना, परम शान्त रहकर आत्मा में रमण करना ही क्षमा है। (२) मार्दव - मान के अभाव से उत्पन्न हुए गुण को मार्दव कहते हैं। आत्मा में अभिमान से कठोरता उत्पन्न होती है । अभिमान सभी बुराइयों का मूल है और सभी गुणों का मूल विनय अर्थात् मार्दव है। जिसके जीवन में सुकोमलता एवं मृदुता उत्पन्न हो जाती है, वही शुक्लध्यान का ध्याता होता है। (३) आर्जव आत्मवंचना और परवंचना का नाम माया है। अपने दोषों को ढ़कना तथा दूसरे को ठगना परबंचना कहलाती है। इस माया को समाप्त कर देना ही आर्जव है । यह आत्मा का परम गुण है। इस गण के होने पर ही शुक्लध्यान और अधिक पुष्ट होता है। (४) सन्तोष शुक्लध्यान का चौथा गुण सन्तोष है। लोभ से मुक्ति पाना ही सुक्कस्सणं झाणस्स चत्तारि आलंबणा पण्णत्ता, तं जहां खंती, मुत्ती, मद्दवे, अज्जवे । स्थानाग सूत्र, सूत्र १२; पृ० ६७६ तथा भगवतीसूत्र शतक २५, उद्देशक, ७; औपपातिकसूत्र ३०. तपोधिकार Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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