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योग : ध्यान और उसके भेद
और ( ४ ) ममता से रहित ।
(१) अपीड़ित
शुक्लध्यान में अवस्थित साधक भयंकर से भयंकर परीषह और घोर उपसर्गों से विचलित नहीं होता, वह किसी प्रलोभन में भा नहीं फंसता, वह किसी भी समय व्याकुल भी नहीं होता, विश्व की कोई भी शक्ति उसे ध्यान से विचलित नहीं कर सकती और वह कभी भी व्यथित भी नहीं हो सकता । इसी कारण सूत्रकार ने उसका पहला लक्षण 'अ' कहा है, जिसका अर्थ है - व्यथा का अनुभव न करना । ऐसी ज्ञान दशा शुक्लध्यान में ही हो सकती है ।
(२) असम्बोह
शुक्ल ध्यानी का दूसरा लक्षण है – असंमोह | साधक देवादिक माया से मोहित नहीं होता । मोह को २८ प्रकृतियां उसमें उदित नहीं हो पातीं, उसे मोह जनक निमित्त कितने ही मिर्ले परन्तु वह अपने ध्येय में ही स्थिर रहता है, ममता भी उसका स्पर्श करने से डरती है । (३) विवेक
यह शुक्लध्यान का तीसरा लक्षण है । जब ध्यानी को यह निश्चय हो जाता है कि मैं देह नहीं, आत्मा हूं, तब वह देह नाशक कष्ट होने पर भी खेद नहीं मानता, क्योंकि उसे ज्ञात है कि कष्ट की अनुभूति देह को होती है, आत्मा को नहीं । वह तो शुद्ध है, व्यथा मुक्त है और आनन्द स्वरूप है ।
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( ४ )
व्युत्सर्ग
यह शुक्लध्यानी साधक का चतुर्थ लक्षण है अनासक्तभाव पूर्वक देह और उपधि का परित्याग करना व्युत्सर्ग कहलाता है । जिसको अपनी देह पर भी ममत्व नहीं है, वह बाह्य उपकरणों पर क्या ममत्व कर सकता है ? इस प्रकार शुक्ल ध्यानी में उक्त चारों लक्षण पाए जाते हैं ।
१. चालिज्जेह बीहइ व धीरो न परीसहोवसग्गे हि ।
सुहुमेसु न संबुज्झइ भावेसु न देवमायासु ॥
aaa पेच्छ अप्पागं तह य सब्बसंजोगे ।
देहो वहि वसग्गं निस्संग सव्वहा कुणइ ॥ स्थानांगसूत्र, प्रथम भाग,
पृ०
६६० पर उद्धृत
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