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याग : ध्यान और उसके भेद
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(२) एकत्वश्रुत अविचारी
इस ध्यान में भी श्रुत के आधार पर ही अर्थ, व्यञ्जन और योग के संक्रमण से रहित एक पर्याय विषयक ध्यान किया जाता है। इसमें वितर्क का संक्रमण नहीं होता और इसके विपरीत एक रूप में स्थिर होकर चिन्तन किया जाता है। जहां पहले प्रकार के ध्यान के अन्तर्गत योगो का मन अर्थ, व्यञ्जन और योग में चिन्तन करते हुए एक ही आलम्बन में उलट फेर करता है, वहीं इस ध्यान में योगी का मन स्थिरत्व को धारण कर सबल हो जाता है और आलम्बन का उलटफेर भो बन्द हो जाता है इसके साथ ही एक ही द्रव्य के विभिन्न पर्यायों के विपरीत एक ही पर्याय को ध्येय बना लिया जाता है। इस तरह जिसने प्रथम ध्यान के द्वारा अपने चित्त को जीत लिया है, जिसके समस्त कषाय शान्त हो गए हैं तथा जो कर्मरज को सर्वथा नष्ट करने के लिए तत्पर है ऐसे साधक ही द्वितीय ध्यान के धारक बनते हैं। फलत: इस ध्यान की सिद्धि होने के बाद सदा के लिए घातिया कर्म विनष्ट हो जाते हैं। आत्मा 'की अत्यन्त विशुद्ध अवस्था केवलदर्शन एवं केवलज्ञानमय हो जाती है। जिससे योगी साधक को सम्पूर्ण जगत् हस्तामलकवत् दृष्टिगोचर होने लगता है ।। केवली इतना समर्थ होता है कि वह समस्त संसार के भूत, भविष्य एवं वर्तमान इन तीनों कालों की घटनाओं को एक साथ निरन्तर जानता है, वह उसे प्रत्यक्ष देखता है । केवली अनन्तसुख, अनन्तवीर्य आदि चार अनन्त चतुष्टय के धारी होते हैं। समस्त जगत् इनके चरणों में
१. जं पुण सुणिक्क निवाय सरणप्पईवमियचित्तं ।
उप्पाय ठिइ भंगाइ याणमेगंपि पज्जाए। अविया रमत्यवंजणजोगंतरओ तयं वितिय सुक्कं । पुत्वगय सुयालंत्रणमेगत्तपितक्कमविचारं। ध्यान श० ७६-८० तथा दे०
यो शा० ११.७ २. अविचारो वितर्कस्य यत्रकत्वेन संस्थितः ।
सवितर्कमवीचारं तदेकत्वं विदुबधाः ॥ ज्ञाना० ४२.१४ ३. दे० यो शा०, ११.२२ ४. दे० ज्ञानार्णव, ४२.३० ५. योगशास्त्र, ११.२३ ६. दे० ज्ञानार्णव, ४२.४४
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