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220 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन किए गए हैं। वे हैं—पृथकत्व वितर्कसविचारी, (२) एकत्व वितर्क अविचारी, (३) सूक्ष्मक्रिया-अनिवृत्ति और (४) उत्सन्न क्रिया अप्रतिपाती।
(१) पृथकत्ववितर्क सविचारी
पृथकत्व, वितर्क एवं विचार ऐसे इन तीन शब्दों के प्रयोग से यह पद बना है । पृयकत्व का अर्थ है --एक द्रव्य के आश्रित उत्पाद आदि पर्यायों का पृथक-पृथक् भाव से चिन्तन करना। वितर्क शब्द श्रुत। ज्ञान का परिचायक है और शब्द से अर्थ में और अर्थ से शब्द में तथा एक योग से दूसरे योग में संक्रमण करना हो सविचारी है। जब कोई ध्यान करने वाला पूर्वधर हो तब पूर्वगत श्रृत के आधार पर और पूर्वधर न हो तब अपने में सम्भावित श्रुत के आधार पर किसी भी जड़ या चेतन द्रव्य में उत्पत्ति, स्थिति और द्रव्य आदि पदार्थों का नैगम आदि विविध नयों के द्वारा चिन्तन करना और यथासम्भावित श्रुतज्ञान के आधार पर किसी एक द्रव्य से दूसरे द्रव्य पर, किसी एक पर्याय से दूसरे पर्याय मर, एक शब्द से दूसरे शब्द पर तथा एक अर्थ से दूसरे अर्थ पर, एक योग से दूसरे योग पर विचारधारा को प्रवाहित करना, विचार सहित ध्यान को ही प्यक वितर्क सविचारी शुक्लध्यान कहते हैं ।
१. (क) स्थानाङ गसूत्र, पृ० ६८७-८८ (ख) उप्यायट्ठिइ भंगाइ पज्जयाणं जमेगवत्थुमि ।
नाणानयाणुसरणं पुव्वगय सुयाणुसारेणं ।।। सविचारमत्थ वं जणजोगंतरओ तयं पठमसुक्कं ।
होइ पुहु तवित सविचारमरागभावस्स ॥ ध्यानशा० ७७-७८ (ग) एकत्रपर्यायाणां विविधनयानुसरणं श्रुताद्रव्ये ।
अर्थव्यज्जनयोगान्त रेषु संक्रमणयु क्तमाद्यं तत् ॥ यो०शा० ११.६ (घ) पृथक्त्वेन वितर्कस्य वीचारो यत्र विद्यते ।
सवितर्क सबीचारं सपृथक्त्वं तदिष्यते ॥ ज्ञानार्णव, ४२.१३ (ङ) समाधितन्त्र, श्लोक ६२
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