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218 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन (४) चारों गतियों और सभी अवस्थाओं में होने वाले आत्मा के
आत्रागमन का चिन्तन करना संसारानुप्रेक्षा है।
इनमें से पहली अनुप्रेक्षा के ज्ञान की परिपक्वता विज्ञानरूप, संयम और तप में दृढ़ता लाने वाली वैराग्य की जननी है। तीसरी भावना आसक्ति को हटा कर निर्मोहत्व को जगाती है और चतुर्थ त्यागभावना को पुष्ट करती है। धर्मध्यान को लेश्याएं
धर्मध्यान में स्थित साधक के भावों के अनुसार तीव्र, मन्द और मध्यम प्रकार की पीत, पद्म एवं शक्ल ये तीन लेश्याएं होती हैं। जैसेजैसे ध्यान की तीव्रता बढ़ती जाती हैं वैसे ही वैसे क्रमशः साधक का चित्त अधिकाधिक विशुद्ध वाला होता जाता है। और लेश्याएं भी विशुद्धतर होतो जाती हैं । इसो कारण आचार्य शुभचन्द्र धर्मध्यान में शुक्ललेश्या ही मानते हैं।'
__ धर्म ध्यान के इस विश्लेषण एवं भेद प्रभेदों के द्वारा योगी ध्यान की स्थिरता को प्राप्त करता है। उसका चित्त किसी एक ही ध्येय में केन्द्रित हो जाता है। ऐसी स्थिति में योगी शरीरादि परिग्रहों एवं इन्द्रियादिक विधयों से सर्वथा निवृत होकर निज स्वरूप में अवस्थित हो जाता है । उस अवस्था में प्राप्त आनन्द अनुभवगम्य होता है, जो कि इन्द्रियों से अगम्य हाता है । इस ध्यान को साधना वही कर सकता है, जो प्राणों के नाश होने का अवसर आने पर भी साधना का परित्याग नहीं करता, जो जीवों के सुःख दुःख का ज्ञाता, परीषह विजेता मुमुक्षु,
१. होन्ति कम्मविशुद्धाओ लेस्साओ पीयपद्मसुक्काओ ।
धम्मज्झाणोवगयस्स तिवमंदाइ भेयाओ । वही, गा० ६६ ता-~-धर्मध्याने भवेद् भावः क्षायोपशमिकादिकः ।
लेश्याक्रनविश द्धा स्युः पीतपद्मसिताः पुनः ॥ यो०शा०, १०.१६ २. . अतिक्रम्य शरीरादिङ गानात्मन्यवस्थितः ।
नवाक्षमनमो योगं करोत्येकाग्रताश्रितः । ज्ञानार्णव, ४१.११ ३. अस्मिन्नितालवैराग्गव्यतिषंगरङि गते ।
जायते देहिनां सौख्यं स्वसंवैद्यनतीन्द्रियम् ।। यो शा० १०.१७ ४: वही, ७.२-७ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only
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