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योग : ध्यान और उसके भेद
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का अवतरण हो जाता है उसमें स्वभाविक रूप से चार प्रकार की रुचि उत्पन्न हो जाती है, उन्हीं से मालूम हो जाता है कि साधक के मन में धर्मध्यान अंकुरित हो गया है, वे लक्षण हैं(१) आज्ञारुचि
सूत्रों की व्याख्या को आज्ञा कहते हैं अथवा आप्त वचन ही आज्ञा है । अरिहन्त सर्वोत्कृष्ट आप्त हैं। इसलिए उनका वाणी ही आज्ञा है । इस आज्ञा के अनकल जीवन यापन करने वाले श्रेष्ठ साधक भी आप्त ही हैं । अतः उनकी आज्ञा में रुचि उत्पन्न होना ही आज्ञारुचि है। (२) निसर्गरुचि
बिना किसी उपदेश के स्वतः ही जातिस्मरणज्ञान के रूप में देवगुरु-धर्म में रुचि होना ही निसर्गरुचि है। (३) सूत्ररुचि
सूत्रों के अध्ययन, चिन्तन एवं मनन में रुचि होना ही सूत्ररुचि है। (४) अवगाढ़रुचि
द्वादशाङग का विस्तार पूर्वक ज्ञान प्राप्त करके जो श्रद्धा जागत होती है अथवा गुरूओं के उपदेश से जो श्रद्धा उत्पन्न होती है, वह अबगाढ़रुचि है ।। धर्मध्यान की अनुप्रेक्षाएं
धर्मध्यान की चार अनुप्रेक्षाएं शास्त्रों में कही गई हैं: वे हैं(१) एकत्वानुप्रेक्षा, (२) अनित्यानुप्रेक्षा, (३) अशरणानुप्रेक्षा, (४) संसारानुप्रेक्षा। (१) एकत्व भावना से भावित होना अर्थात् एक आत्मा ही अपना है,
ऐसा चिन्तन करना एकत्वानप्रेक्षा है । (२) संसार में आत्मा के लिए कोई भी स्थान, पर्याय अथवा शक्ति
शरणभूत नहीं हैं, ऐसा चिन्तन करना अशरणानुप्रेक्षा है । (३) संसार के सभी पदार्थ अनित्य हैं, ऐसा चिन्तन करना अनित्यानु
प्रेक्षा है। १. विशेष के लिए दे०-स्थानांगसूत्र, प्रथम भाग, पृ० ६८५ २. धम्मस्सणं झाणस्य चत्तारि अणुप्पेहाओ पण्णत्ताओ, तं जहा---एगाणुप्पेहा,
अणिच्चाण प्पेहा, अर. रणाणुप्पेहा, संसाराणु पहा । स्थानांग सूत्र, प्र: उ० सूत्र १२, तथा भगवतीसूत्र ३०६, शतक २५; औपातिकसूत्र, सपोधिकार
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