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योग : ध्यान और उसके भेद
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(३) वायवीधारणा
इस धारणा में साधक पूर्व वर्णित आग्नेयी धारणा के पश्चात् समग्र तीनों लोकों को भरने वाले, पर्वतों को चलायमान करने वाले और समुद्र को क्षुब्ध करने वाले प्रचण्ड पवन का चिन्तन करता है और इसके बाद वह आग्नेयीधारणा में देह और अष्ट कर्मों के जलने पर जो झख बनी थी उसे उड़ा देने का चिन्तन करता है । अपने दृढ़ अभ्यास से वह उस पवन को शान्त भी कर देता है जिससे चिन्तन एवं ध्यान में और साधुता आती है । वही वायवीधारणा है । (४) वारुणीधारणा
वारुणीधारणा में अमत-सी वर्षा करने वाले मेघों से व्याप्त आकाश का चिन्तन किया जाता है । अनन्तर ‘अर्ध चन्द्राकार कलाबिन्दु से युक्त वरुण बीज 'व' से उत्पन्न हुए अमृत के समान जल से आकाशतल भर गया है तथा पहले जो राख उड़ी थी पह इस जल से धुल कर साफ हो रही है' ऐसा साधक चिन्तन करता है।
इस प्रकार इस अमृत वर्षा का चिन्तन होना ही वारुणीधारणा
१, ततस्त्रिभुवनाभोगं पूरयन्तं समीरणम् ।
चालयन्तं गिरीनब्धीत् क्षोभयन्तं विचिन्तयेत् ।। तच्चभस्मरजस्तेनशीघ्रमुख़्यवायुनां । दृढाभ्यास: प्रक्षान्तिं तमानयेदिति मारुती ॥ योगशास्त्र ७.१६,२० तथा--विमानपथमापूर्य संचरन्तं : मीरणम् ।
स्मरत्यविरतं योगी महावेगं महाबलम् ।। चालयन्तं सुरानीकं ध्वनन्तं त्रिदशाचलम् । दारयन्तं धनवातं क्षोभयन्तं महार्णवम् ॥ ज्ञानार्णव, ३७,२०-२१
तथा दे० गा० २२-२३ २. (क) स्मेद्वर्षत्सुधासारैर्धनमालाकुलं नभः ।
ततोऽर्धेन्दु समाक्रान्तं मण्डलं वारुणांकितम् ॥ यो० शा० ७.२१
तथा २२ (ख) वरुण्यां स हि पुण्यात्मा धनजालचितं नभः ।
इन्द्रायुधतडिद्गर्जच्चमत्काराकुलं स्मरेत् ॥ ज्ञाना० ३७.२४ तथा दे० अधिक के लिए २५, २६-२७
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