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योग : ध्यान और उसके भेद
205 (१) पिण्डस्थ, (२) पदस्थ (३) रूपस्थ और (४) रूपातीत ।' इन्हें ही संस्थानविचय ध्यान के चार भेद बतलाया गया है। (१) पिण्डस्थध्यान
पिण्ड का अर्थ है-शरीर । इसका अभिप्राय है-शरीर के विभिन्न अंगों पर मन को केन्द्रित करना । योगशास्त्र तथा ज्ञानार्णव के अनुसार इसके पांच भेद हैं
(१) पार्थिवी, (२) आग्नेयी (३) वायवी, (४) वारुणी और (५) तत्त्ववती। इन्हें धारणा भी कहा जाता है।
इम पांच धारणाओं के माध्यम से साधक उत्तरोत्तर आत्मकेन्द्रित ध्यान में स्थित होता है।
(१) पार्थिवी
सर्वप्रथम साधक को पार्थिवी धारणा में हम जिस पृथ्वी पर रहते हैं उसका नाम तिर्यग्लोक अथवा मध्यलोक है। मध्य लोक एक रज्ज, प्रमाण विस्तृत है । इस मध्यलोक के बराबर लम्बे चौड़े क्षीरसागर में जम्बूद्वीप के बराबर एक लाख योजनविस्तार वाले और एक हजार पंखड़ियों वाले कमल का चिन्तन करना चाहिए। उसके बाद उसके मध्य में केसराएं हैं और उसके अन्दर देदीप्यमान पीली प्रभा से युक्त मेरु पर्वत के बराबर एक लाख योजन ऊंची कर्णिका है, ऐसा चिन्तन करना १. पिण्डस्थं च पदस्थ रूपस्पं रूपवजितम् ।
चतु(ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः ॥ यो० शा०, ७.८
तथा योगसार, श्लोक ६८ २. पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवजितम् ।
चतुर्धा ध्यानमाम्नातं भव्यराजीवभास्करैः ॥ ज्ञाना०, ३७.१ ३. पार्थिवी स्यादयाऽऽग्नेयीमारुतीवारुणी तथा ।
तत्त्वभूः पञ्चमी चेति पिण्डस्थे पञ्च धारणा ॥ यो० शा०, ७.६ तथा-पार्थिवी स्यात्तथाग्नेयी श्वसना वाथ वारुणी।
तत्त्वरूपवती चेति विज्ञेयास्ता यथाक्रमम् ॥ ज्ञानार्णव, ३७.३ ४. दे० योगशा० ७.१०-१२; ज्ञानार्णव, ३७.४-६; योग प्रदीप, २०.४,५,८
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