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________________ 187 योग : ध्यान और उसके भेद पिण्डस्थ ध्यानरूप में उपस्थित हुआ है। क्योंकि ध्येय पदार्थ ध्याता के शरीर में स्थित आत्मा ही ध्यान विषय माना गया है और पिण्डस्थ ध्यान का कार्य भी वही है। इसके अतिरिक्त ध्येय के २४ भेदों का वर्णन भी प्राप्त होता है जिनमें बारह ध्यान क्रमश:-ध्यान, शून्य, कला, ज्योति, बिन्दु, नाद, तारा, लय, मात्रा, पद और सिद्धि हैं तथा इन ध्यानों के साथ परमपद जोड़ने से ध्यान के और अन्य भेद बन जाते है। उपर्युक्त ध्यान के भेद प्रभेदों के विवेचन से पूर्व आगमों एवं योग ग्रंथों में सर्वमान्य ध्यान के चार भेदों का विवेचन करते हैं १. आर्तध्यान आर्त का अर्थ-दुःख है । दु:ख से उत्पन्न होने वाला अथवा प्रिय वस्तु के वियोग एवं अप्रिय वस्तु के संयोग आदि के निमित्त से या आवश्यक मोह के कारण सांसारिक वस्तुओं में रागभाव करना आर्तध्यान है। रागभाव से जो मूढ़ता आती है, वह अज्ञान के कारण है। परिणाम स्वरूप अवाञ्छनीय वस्तु की प्राप्ति-अप्राप्ति होने पर जीव दुःखी होता है। यही आर्तध्यान है । यह ध्यान चार तरह से होता है१. अप्रियवस्तुसंयोग २. प्रियवस्तुवियोग ३. प्रतिकूलवेदना और १. तत्त्वानुशासन, श्लोक १३४ । २. सुन्नु कुलजोइबिन्दुनादो तारो लओ लवोमत्ता। पयसिद्धपरमजुयाझाणइं हंति चउवींस ॥ नमस्कारस्वाध्याय (प्राकृत), पृ० २२५ ३. स्थानांगसूत्र, प्रथम उद्देशक, सूत्र १२, पृ० ६७५ ४. समवायांगसूत्र. ४ समवाय । ५, दशवकालिकसूत्र, प्रथम अध्ययन ६. ऋते भबमथात्तं स्यादसध्यानं शरीरिणाम् । दिग्मोहोन्मत्ततातुल्यमविद्यावासनावशात् । ज्ञाना०, २५.२३ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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