________________
योगबिन्दु की विषय वस्तु
139 भावनाएं भी कही जाती हैं। यहां क्रमशः इनका विश्लेषण किया जाएगा। मैत्री भावना
जैन आगमों में आवश्यकसूत्र अत्यन्त महवत्त्पूर्ण है। जैन साधक श्रमण और श्रमणी प्रतिदिन सुबह और सायंकाल इस सूत्र का आवर्जन एवं पारायण करते हैं । इसमें कहा गया है कि
___ 'मित्ती मे सव्वभूएसु वेरं मज्झं ण केणइ" अर्थात् विश्व में एक इन्द्रिय से लेकर पंचेन्द्रिय तक जितने भी प्राणी हैं, उन सबसे मेरी मैत्री अर्थात् मित्रता है, किसी से भी मेरा वैरभाव नहीं है। निस्सन्देह मैत्री भावना का यह उत्कृष्टतम आदर्श है। मैत्री का अर्थ ही है दूसरे में अपनेपन की भावना जागृत करना, दूसरे को दुःख न देने की अभिलाषा रखना। इस संसार में जितने भी प्राणी हैं, सभी के साथ मेरे सम्बन्ध जुड़े हैं, सभी ने मुझ पर अनेक उपकार किए हैं। अतः वे सब मेरे कुटुम्बोजन उपकारी हैं। इस प्रकार का चिन्तन करना ही मैत्री है ।
आचार्य शुभचन्द के अनुसार संसार के समस्त जीव कष्ट, क्लेश और आपत्तियों से दूर रहकर सुखपूर्वक जीवे । परस्पर में वैर न रखें, पाप न करें और कोई किसी को पराभूत भी न करे।' यही मैत्री भावना है।
इन परिभाषाओं के अध्ययन से यह कहा जा सकता है कि मैत्रीभावना की पहली शर्त है—प्रत्येक जीव का हित चिन्तन करना, उसके १. दे० आवश्यकसूत्र-आवश्यक-४ २. परेषां दुःखामुपत्त्यभिलाषा मैत्री । सर्वार्थ सिद्धि ७.११ ३, सर्वे पितृभ्रातृपितृव्यमातृपुन्नाड्गजा स्त्रीभगिनीस्नुषात्वम् ।
जीवाप्रपन्नाबहुशस्तदेतत् कुटुम्बमेवेति परो न कश्चित् ॥
भावनायोग एक विश्लेषण, पृ० ३६० पर उद्धृत ४. जीवन्तु जन्तवः सर्वे क्लेशव्यसनवजिता ।
प्राप्नुवन्ति सुखं, त्यक्त्वा वैरं पापं पराभवम् ॥ ज्ञानार्णव २७.७ तथा मिलाइए : मा कार्षात्कोऽपि पापानि मा च सूत्कोऽपि दुःखितः । मुच्यता जगदप्येषामतिमैत्रीनिगद्यते ॥ योगशास्त्र, ४.११८
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org