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________________ 134 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन इससे भिन्न जो उपाय प्रत्यय योगी हैं, उन्हें श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि और प्रज्ञा आदि प्रयासों के द्वारा क्रमशः असम्प्रज्ञात समाधि को प्राप्ति होती है। भोज और व्यास दोनों ही श्रद्धा को चित्त की प्रसन्नता, वीर्य को उत्साह, स्मृति को अनुभूत ज्ञान को न भूलना, समाधि की समाहित तथा प्रज्ञा को ज्ञेय पदार्थों का विवेक मानकर, श्रद्धा से वीर्य, वीर्य से स्मृति, स्मृति से समाधि, समाधि से यथार्थज्ञान, यथार्थज्ञान से परवैराग्य और परवेराग्य से असम्प्रज्ञात समाधि की प्राप्ति के क्रम को स्वीकार किया गया है। सूत्रकार पतञ्जलि ने इन पूर्वाक्त उपायों की मन्दता और तीव्रता के आधार पर अधिकारियों के तीन भेद बतलाए हैं.---(१) मृदूपाय, (३) मध्योपाय और (३) अधिमात्रोपाय । पुनः संवेगों की मन्दता, तीव्रता के आधार पर उन तीन को तीन और अवान्तर वर्गों में विभाजित करके कुल नौ श्रेणियों में बांटा है जो वे हैं--(१) मृदूपाय, मृदूसंवेग, (२) मृदूपाय मध्यसंवेग (३) मृदूपाय तीव्रसंवेग, (४) मध्यो. पाय मृदुसंवेग (५) मध्योपाय मध्यसंवेग (६) मध्योपाय तीव्र संवेग (७) अधिमात्रोपाय मृदुसंवेग (७) अधिमात्रोपाय मध्यसंवेग और (९) अधिमात्रोपाय तीव्रसंवेग नाम से अभिहित किए गए है। भोज ने संवेग से तात्पर्य क्रिया करने में कारणरूप दृढत्तर संस्कार बतलाया है। क्योंकि अभ्यास और वैराग्य दोनों के बल से १. श्रद्धावीर्यस्मृतिसमाधिप्रज्ञापूर्वक इतरेषाम् । पा० योगसूत्र १.२० २. तत्र श्रद्धायोगविषये चेतसः प्रसादः । वीर्यमुत्साहः । स्मृतिरनुभूतासम्प्र मोषः । समाधिरेकाग्रता प्रज्ञा प्रज्ञातव्यविवेकः । तत्रश्रद्धावतो वीर्य जायते, योगविषय उत्साहवान् भवति । सोत्साहस्व च पाश्चात्यासु भूमिषु स्मृतिरुत्पद्यते । तत्स्मरणाच्च चेतः समाधीयते । समाहितचित्तश्च भाव्यं सम्यक् विवेकेन जानाति । त एते सम्प्रज्ञातस्य समाधे. रूपायाः, तस्याभ्यासात् पराच्च वैराग्यात् भवत्यसंम्प्रज्ञातः। पातञ्जल योगसूत्र, १.२० पर भोजवृत्ति ३. मृदुमध्याधिमात्रत्वात्ततोऽपि विशेषः । पातंजलयोगसूत्र, १.२२ ४. तद्भेदेन नवयोगिनोभवन्ति । मृदुपाय, मृदुसँवेगो मध्मसंवेगस्तीव्र संवेगश्च । मध्योपाय-मृदुसंवेगो मध्यसंवेगस्तीवसंवेगश्च । अधिमात्रोपायो मृदुसंवेगो मध्यसंवेगस्तीवसंवेगश्च । पातंजलयोगसूत्र, भोज वृत्ति, १.२२ ५. संवेगः क्रियाहेतुः दृढ़तरः संस्कारः । वही, १.२१ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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