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________________ cafe के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन है और साधक आत्मा में ध्यानस्थ होने के लिए समर्थ हो जाता है । (६) पदार्थ भावना इसमें साधक पूर्वोक्त भूमिकाओं के अभ्यास से आत्मा में मन को दृढ़ कर लेता है तथा समस्त बाह्य पदार्थों की ओर से विमुख हो जाता है । ऐसी अवस्था में साधक को बाहरी सभी पदार्थ मिथ्या प्रतीत होते हैं । 110 (७) तुयंगा पहले बतलायी गई छः भूमिकाओं के द्वारा निरन्तर अभ्यास से जब साधक को भेद में भी अभेद की प्रतीति होने लगती है और वह जब आत्मभाव में अविचलित रूप से स्थिर हो जाता है तो ऐसी स्थिति को तुर्यगाभूमि कहते हैं । इसे जीवन्मुक्त अवस्था भी बतलाया गया है । ध्यातव्य है कि विदेहमुक्ति तुर्यगावस्था से भिन्न है, एक नहीं, जैसा कि कुछ बौद्ध विद्वान् मानते हैं । (२) बौद्ध योग साधना का विकास वैदिक साधना की ही तरह बौद्ध परम्परा में भी योगसाधना के विकास के लिए चित्तशुद्धि को आवश्यक माना गया है क्योंकि इसके विकास की भूमिका नैतिक आचार-विचार के द्वारा चारित्र को विकसित और सशक्त बनाती है तथा चारित्र विकास ही योगसाधना का परम लक्ष्य है । बतलाया गया है कि श्रद्धा, वीर्य, स्मृति, समाधि तथा प्रज्ञा' इन पांच साधनों के सम्यक्परिपालन द्वारा साधक अपने चारित्रिक गठन और विकास के माध्यम से विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति करता है । दूसरे शब्दों में निर्वाण अथवा विशुद्ध अवस्था की प्राप्ति के लिए क्रमश: छः अथवा सात स्थितियों का विधान किया गया है जिनसे साधना के १. २. योगवासिष्ठ ३.११८.७-३६ तथा योगवासिष्ठ एवं उसके सिद्धान्त, पृ० ४५२ दे० मिलिन्द० प्रश्न, २.१.८ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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