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योगबिन्दु के रचयिता : आचार्य हरिभद्रमूरि
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(३) योगदृष्टिसमुच्चय और
(४) योगबिन्दु (२७) योगविशिका
यह आचार्यश्री की योग पर प्रथम रचना है। यह प्राकृत भाषा में निबद्ध है। आचार एवं चारित्र निष्ठ साधक ही योग का अधिकारी है। यह इसमें स्पष्ट बतलाया गया हैं। इसमें आध्यात्मिक विकास की पांच भूमियों-स्थान, इसकी इच्छा, प्रवृत्ति, स्थैर्य और सिद्ध आदि भेदों तथा अर्थ आलम्बन एवं तीर्थोच्छेद आदि अनालम्बन में विभक्त की गई है।
. योगविशिका पर उपाध्याय यशोविजय की हिन्दो टीका मिलती है। आचार्यश्री ने स्वयं भी इस पर स्वोपज्ञ नामक संस्कृत टीका लिखी है। इसमें २० पद्य हैं। (२८) योगशतक
आचार्य हरिभद्रसूरि की यह अनूठी रचना १०० पद्यों एवं प्राकृत भाषा में निबद्ध है। दो प्रकार के योग पर विचार किया गया है। वे हैं-निश्चययोग एवं व्यवहारयोग।
रत्नत्रय, आत्मा, उसके साथ इनका सम्बन्ध, योगाधिकारी, योगसाधना का विकास, एक योग भूमि से दूसरी भूमि पर पहुंचने का तरीका, योग के स्थूल एवं बाह्य साधनों के साधक एवं बाधक कारणों आदि विषयों पर योगशतक में विस्तार से चर्चा की गई है। इससे एक योग्य साधक यथा उचित योग की प्रक्रिया का आलम्बन लेकर क्रमशः अपना आत्मविकास करता हुआ, कर्मबन्धन से मुक्त होता है और अपने लक्ष्यभूत मोक्ष लक्ष्मी को हस्तगत कर लेता है। यह कति भी हिन्दी अनुवाद एवं स्वोपज्ञ संस्कृत टीका सहित प्रकाशित है। (२६) योगदृष्टिसमुच्चय
सूरि द्वारा संस्कृत पद्यों में विरचित यह योग साधना परक ग्रन्थ आध्यात्मिक विकास का अनुपम नगीना है। इस पर स्वयं सूरि ने टीका
१. हरिभद्रयोग भारती (देव दर्शन ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित) ।
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