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________________ 100 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधसा का समीक्षात्मक अध्ययन जाती है। भारतीय वाङमय में प्रचलित अनेक रूढ़ियों का धर्ताख्यान में पर्दाफास किया गया है। यहां अन्धविश्वास पर करारी चाट की गई है, जिससे लेखक की वाकविदग्धता और अनोखी कल्पना की सूझ-बूझ एवं निष्पक्षता स्पष्ट परिलक्षित होती है। सूरि' निस्सन्देह हास्य प्रधान एवं व्यंग्य पूर्ण शैली के लिखने में सिद्धहस्त थे । प्रस्तुत ग्रंथ की रचना करने में सूरि का उद्देश्य एकमात्र स्वच्छ समाज का निर्माण करना था और उसे कुवासनाओं, कुरीतियों के अंवर से बाहिर निकलना भी था। धृर्ताख्यान में प्रसंगवश जिन विषयों पर प्रकाश डाला गया है। उनमें प्रमुख हैं (१) सष्टि उत्पत्तिवाद, (२) सष्टि प्रलयवाद, (३) त्रिदेव स्वरूप एवं उनकी मिथ्या मान्यताएं (४) रूढ़िवादिता, (५) अस्वाभाविक कतिपय मान्यताएं (६) ऋषियों से सम्बन्धित असंगत कल्पनाएं एवं अमानवीय तत्त्व इत्यादि। (घ) योग सम्बन्धी रचनाएं आचार्य हरिभद्रसूरि की भारतीय वाङमय की तीसरी महान् देन योग परक ग्रन्थ रत्नों की रचना है, जिससे योगदर्शन साहित्य के क्षेत्र में पतञ्जलि के बाद आपका ही नाम लिया जाता है। योग पर आपने विस्तार से अन्याय ग्रथों का गहन चिन्तन एवं मनन किया है। इससे भी आपकी योग साधना सिद्धि की पहुंच का एक सर्वोत्तम स्पष्ट प्रमाण मिलता है तथा जैन योगध्यान साधना के उत्कर्ष का भी बोध होता है। आपने योग परक चार ग्रन्थों की रचना की है(१) योगविशिका (२) योगशतक १. वही, पृ० १७१ २. वही, पृ० १७२ ___Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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