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योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन
४. आत्मानुशासन' और . ५. आत्मसिद्धि इत्यादि (२२) दरिसणसत्तरि
- इस रचना का दूसरा नाम सम्मत्तसत्तरि भी है। इस कारण इस रचना का वर्ण्यविषय मुख्यतः सम्यक्त्व या सम्यग्दर्शन का यथार्थ निरूपण करना है, जो आत्मा का एक स्वाभाविक गुण है।
यह प्राकृत में निबद्ध पद्यात्मक कृति है। इस पर अनेक टीकाएं मिलती हैं। इनमें रुद्रपल्लीय गच्छ के संघतिलकसूरि द्वारा रचित संस्कृत टीका जो ७७११ श्लोक प्रमाण है, मख्य है। इसका वि० सं. १४२२ दिया गया है। टीकाकार ने इसका नाम तत्त्वकौमुदी रखा है।
दूसरे, इस पर गुणनिधानसूरि के शिष्य द्वारा लिखी गई ‘अवचूरि' भी प्राप्त होती है। दूसरी टीका जो ३५७ श्लोक प्रमाण है, मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य शिवमण्डनगणि ने लिखी है। . दरिसणसत्तरि सम्मत्तसत्तरि नामक यह ग्रंथ टीका सहित १६१३ में प्रकाशित हुआ है। कुछ विद्वान् इसका श्राक्कधर्मप्रकरण नाम भी बतलाते हैं जो कि सर्वथा गलत है क्योंकि दोनों के विषय की भिन्नता स्पष्ट परिलक्षित होती है। (२३) षोडशकप्रकरण
- हरिभद्रसूरि की यह कति संस्कृत भाषा में निबद्ध है। इसमें आय छन्द का प्रयोग है । इसको सोलह भागों अथवा अधिकारों में वर्गीकृत किया गया है । सोलहवें में ७० पद्य हैं जबकि शेष पन्द्रह अधिकारों में १६ पद्य हैं । सम्भवतः इसी आधार पर इसका नामकरण किया हुआ लगता है।
१. दे० धूर्ताख्यान, प्रस्तावना, पु० १२-१३ २, विस्तृत अध्ययन के लिए दे० हरि० प्रा० सा० आ० परि०, पृ० १६१ ३. दे० श्रीहरिभद्रसूरि, पृ० ६२ ४. वही, दृ० ६३ ५. वही, पृ० ६४
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