________________
में आ रहा है।
श्रीमुनिसुव्रत जी शास्त्री राष्ट्र शिरोमणि सन्त उत्तर भारतीय ।। प्रवर्तक गुरुदेव भण्डारी श्रीपद्मचन्द्र जी महाराज के प्रशिष्य और हरियाणा केसरी वाणीभूषण उत्तर भारतीय उपप्रवर्तक श्रीअमर मुनि जी महाराज के सुयोग्य शिष्य हैं । आधुनिक भारतीय अनेक भाषाओं के ज्ञाता होते हए भी शास्त्री जी का संस्कृत, प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं पर पूर्ण अधिकार हैं।
इसी कारण उपयुक्त अपने खोजपूर्ण प्रबन्ध में आपने जैन जैनेतर समस्त भारतीय वाङमय का आलोड़न-विलोड़न किया है और योगबिन्दगत योगमाहात्म्य, योगाधिकारी, योग के प्रकार--अध्यात्मयोग, समतायोग, ध्यानयोग, भावनायोग और वृत्तिसंक्षययोग, को विस्तार से स्पष्ट करते हए योग साधना में आत्मा की स्थिति, उसका सर्वज्ञत्व, योग और कर्म, गणस्थान और लेश्याओं की महत्ता का जैनदर्शनानुसार सम्यक प्रतिपादन किया गया है। एदतथं आपको बहुशः साधुवाद ।
इसके अतिरिक्त विद्वान् सन्त के द्वारा पूर्व में और भी अन्य कतिपय मौलिक ग्रंथों का प्रणयन किया गया है जिनमें-मानवता की प्रकाश किरणे एवं पद्मपराग विशेष उल्लेखनीय हैं। मुझे विश्वास है कि प्रकृत ग्रन्थ रत्न भी इसी कड़ी में ध्यानयोग के जिज्ञासुओं एवं शोधकर्ता पाठकों को अधिक उपयोगी सिद्ध होगा।
मैं शास्त्री जी के दीर्घजीवी योगसाधना को मंगलाकामना के साथ भविष्य में भी आपके द्वारा दुर्लभ जैन पाण्डुलिपियों के सम्पादन एवं प्रकाशन की अपेक्षा करता हूँ। ओम शान्ति ।
(डॉ० धर्मचन्द्र जैन)
रीडर
डी-११५, विश्वविद्यालय परिसर ७ अक्टूबर, १९६१
संस्कृत एवं प्राच्य विद्या संस्थान, कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र
___Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org