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वाङ्मुख
मानव का चरम लक्ष्य आध्यात्मिक विकास को पूर्णता और उससे लब्ध प्रज्ञाप्रकर्षजन्य पूर्णबोध सर्वज्ञत्व व स्वस्वरूप-प्रतिष्ठा की उपलब्धि है। इस परमकैवल्य वा परिनिर्वाण लाभ में अन्यतन विशिष्ट साधन योग है। यह योग जगत् की प्राचीनतम विद्या है। कोई भी ऐसा दर्शन, सम्प्रदाय व मजहब नहीं है जो योग की महिमा से अछूता हो।
योग की महिमा अचिन्त्य है । अनेकों ऋषि, महर्षियों एवं तपस्वियों ने योग ध्यान साधना के बल पर अलौकिक सुख को पाकर अपने जीवन को सफल बनाया है। आज भी भारतभू की गिरिगुफाओं, उपत्यकाओं, वनों, एवं श्मशानों में यति, मुनि, साध-सन्त इस विद्या के पारायण से ज्ञानाराधन एवं शाश्वत सुख की खोज में लगे हुए हैं। पाश्चात्य जगत् भी इस विद्या के गढ रहस्य को जानने में अहनिश प्रयासरत है।
इस आध्यात्मयोग के क्षेत्र में जैन ध्यान साधना का अपना विशिष्ट स्थान है। बढ़ चढ़कर एक से एक योगावचर, तपस्वी, आचार्य, सन्त यहां हुए हैं जिनमें से एक बहश्रुतधर, प्रतिभासम्पन्न, महान लेखक, विद्वान्, आचार्य श्री हरिभद्रसूरि हैं। आपने ही सर्वप्रथम अपनी अनुपम कृतियों में योग का नतन मौलिक गहन चिन्तन किया है।
मन, वचन एवं कर्म का आत्मा के साथ एकाकार हो जाना, उनका तदनुकूल चलना ही योग है। हरिभद्र सूरि ने धर्मसाधना के समग्र उपक्रम को ही योग का सार स्वीकार किया है-मोक्खेण जोयणाओ, जोगो सव्वो वि धम्मवावारो (योगविशिंका का० १)
मुझे अत्यन्त प्रसन्नता है कि 8वीं शताब्दी के इन पूज्य महायोगी आचार्यप्रवर हरिभद्र सूरि का अनुसरण करने वाले नवोदित युवक सन्त श्री सुव्रतमुनि शास्त्री नेसूरि को योगपरक चार रचनाओं में से अत्युपयोगी ग्रंथ योगबिन्दु को आधार बनाकर जैन वाङमय में योग साधना का तुलनात्मक एवं समीक्षात्मक शोध प्रबन्ध लिखा है जो आज 'योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योगसाधना का समाक्षात्मक अध्ययन'इस नाम से प्रकाश
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