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________________ 66 योगविन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना का समीक्षात्मक अध्ययन साहित्य विषयक हरिभद्रसूरि की विशेषताएं हैं। अब हम दर्शन और योग के क्षेत्र में हरिभद्रसूरि के विशिष्ट योगदान को कुछ विशेषताओं का अध्ययन करते हैंसमत्व दृष्टि और औदार्य गुण आध्यात्मिकता का परम लक्ष्य समभाव और निष्पक्षता है। हरिभद्रसूरि ने जिसे अपने दार्शनिक ग्रंथों में बड़ी उदारता से साधा है। लोकतत्त्वनिर्णय ग्रन्थ में जो कुछ आचार्य हरिभद्रसूरि ने कहा है वह उनकी निष्पक्षता, तटस्थता और गुणग्राहकता का द्योतक है। भारतीय द शनिकों में हरिभद्रसूरि ही एक मात्र ऐसे मनीषि आचार्य हैं जिन्होंने अपने ग्रंथ षड्दर्शनसमुच्चय की रचना में केवल उनउन दर्शनों के मान्य देवों और तत्त्वों को यथार्थ रूप से निरूपित करने का प्रयास किया है, किसी के खण्डन करने की दष्टि से उनको नहीं लिखा । आपका अनुकरण करने वाले आचार्य राजशेखर प्रभृति विद्वान अपनी रचनाओं में वैसी उदारता नहीं दिखला सके। चार्वाक कोई दर्शन नहीं है - ऐसा विधान तो राजशेखर करते ही हैं परन्तु साथ ही अन्त में पूर्व प्रचलित ढंग से चार्वाक दर्शन का खण्डन भी करते हैं । जो परम्परागत होने पर भी लेखक की दृष्टि में कुछ न्यूनता सूचित करता है। __हरिभद्रसूरि की दृष्टि इस विषय में बड़ी उदात्त रही है। उन्होंने १. बन्धुर्न नः स भगवान् रिपवोऽपि नान्ये, साक्षान्न दृष्टचर एकतमोऽपि चैषाम् ।। श्रुत्वा वचः सुचरितं च पृथग विशेषम्, वीरं गुणातिशयं लोलतयाश्रिताः स्मः ॥ लोकतत्त्वनि० १.३२ पक्षपातो न मे वीरे न द्वषः कपिलादिषु । युक्तिमदवचनं यस्य तस्य कार्य परिग्रहः ॥ वही १.३८ २. दे० (संघवी) समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० ४३ ३. नास्तिकस्तु न दर्शनम् । राजशेखर, षड् समु०. श्लोक ४ ४. वही, श्लोक ६५ से ७५ Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002573
Book TitleYogabindu ke Pariprekshya me Yog Sadhna ka Samikshatmak Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSuvratmuni Shastri
PublisherAatm Gyanpith
Publication Year1991
Total Pages348
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Yoga
File Size14 MB
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