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58 योगबिन्दु के परिप्रेक्ष्य में जैन योग साधना को समीक्षात्मक अध्ययन गाथा में आए 'तत' पद के 'सो' से वीरभद्र का ग्रहण किया है, उसी पद्य के अगले पाद में 'जस्स' पद से 'मुनि जिनविजय' ने कुवलयमालाकहाकार का ग्रहण किया है अर्थात् हरिभद्रसूरि, उद्योतनसूरि के गुरु थे, यह सिद्ध किया है।
परन्तु व्याकरण के नियमानुसार 'तत्' पद से जिसका ग्रहण होगा, जस्स (यस्य) पद से भी उसी का ग्रहण होने से जस्स पद से यहाँ 'वीरभद्र' को ही लिया जाना चाहिए, नहीं तो विरोध की स्थिति उत्पन्न होगी, जो अनुचित है। अतएव व्याकरण के अनुसार इस गाथा का अर्थ होगा कि तर्कशास्त्र के विषय में हरिभद्र, वीरभद्र के गुरु थे, न कि उद्योतनसूरि के। इस तरह हरिभद्रसूरि कुवलयमालाकहा कार के गुरु के गुरु थे । समर्थन में मुनि जयसुन्दरविजय ने कुवलयमालाकहा कार के ही एक अन्य पद्य को प्रमाण रूप में प्रस्तुत किया है। इस पद्य में उद्योतनसूरि ने हरिभद्रसूरि का स्मरण किया है किन्तु उनको अपना गुरु होने को कोई सूचना नहीं दी। इससे सिद्ध होता है कि हरिभद्रसूरि कुवलयमालाकहाकार उद्योतनसूरि के गुरु नहीं थे। पाश्चात्य जर्मन विद्वान् हर्मन जेकोबी का मत
कुछ विद्वान् जिनमें हर्मन जेकोबी प्रमुख है उन्होंने उपमितिभवप्रपञ्चकथाकार श्रीसिद्धर्षि के गुरु के रूप में आचार्य हरिभद्रसूरि को माना है। इसके प्रमाण में उपमितिभवप्रपञ्चकथा के ये प्रशस्ति पद्य प्रस्तुत किए गए हैं
आचार्य हरिभद्रो मे धर्मबोधकरो गुरुः, प्रस्तावे भावतो हन्त स एवाद्ये निवेदितः : अनागतं परिज्ञाय चैत्यवन्दनसंश्रया, मदर्थव कृता येन वृत्तिललितविस्तरा ।।
१. दे. वही, पृ० १० २. जो इच्छइ भवविरहं को वंदए सुजणो।
समयसयसत्थगुरुणो समरमियकाकहा जस्स ॥ कुवलयमा०, पृ० ४
शास्त्रवा०, भू०, पृ० ११ ४. वही, पृ० ११ पर उद्धत ।
३.
शासन
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