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किया। कुंतक ने वक्रोक्ति सिद्धान्त का परिष्कार कर इसे एक उत्कृष्ट आलोचना सिद्धान्त के रूप में स्थापित किया। काव्यशास्त्रीय आचार्यों की दृष्टि में वक्रोक्ति
भारतीय काव्याचार्यों ने तीन अर्थों में वक्रोक्ति का प्रयोग किया१. सामान्य चमत्कार या अतिशयोक्ति के रूप में।
इस अर्थ में वक्रोक्ति का प्रथम प्रयोग आचार्य भामह ने किया। उनके अनुसार
सैषा सर्वैव वक्रोक्तिरनयार्थोविभाव्यते। यत्नोऽस्यां कविनां कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना।'
यह सर्वत्र वक्रोक्ति ही है....! कौन सा सौन्दर्य है जो इसके बिना हो। भामह वक्रोक्ति को काव्य का आधारभूत तत्त्व मानते हैं।
२. आचार्य कुन्तक ने वक्रोक्ति का प्रयोग काव्य सर्वस्व या काव्यसिद्धान्त-विशेष के अर्थ में किया। वक्रोक्ति सिद्धान्त की स्थापना कर इसे काव्य का प्राण माना। वक्रोक्ति के स्वरूप को स्पष्ट करते हुए उन्होंने
कहा
वक्रोक्तिः प्रसिद्धाभिधानव्यतिरेकिणी विचित्रैवाभिधा। कीदृशी-वैदग्ध्यभङ्गी भणितिः वैदग्ध्यं विदग्धभावः कविकर्मकौशलं तस्य भङ्गी विच्छित्तिः तथा भणितिः विचित्रैवाभि-धावक्रोक्तिरित्युच्यते।
इस उक्ति से निम्न तथ्य प्रकट होते हैं• वक्रोक्ति सामान्य उक्ति के अतिरिक्त विचित्र कथन या उक्ति
• वह शास्त्रादि में प्रयुक्त शब्दार्थ के सामान्य प्रयोग से सर्वथा
भिन्न है। • वक्रोक्ति निपुण कवि के काव्य-कौशल की शोभा है। • कवि-कौशल जन्य चारूता ही वक्रोक्ति है।
३. वक्रोक्ति का तीसरा प्रयोग अलंकार-अर्थ में किया जाता है। अतः यह कहीं शब्दालंकार और अर्थालंकार के रूप में मान्य है।
निष्कर्षतः वक्रोक्ति सम्प्रदाय के अनुसार काव्य का सौन्दर्य उक्ति की विशिष्टता व विचित्रता में है और ऐसी उक्ति काव्य की आत्मा है।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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