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________________ नहीं सधता। श्रद्धा साधक जीवन का आधार है, सफलता की जननी है और लक्ष्य तक पहुंचने का प्रकृष्ट पाथेय है। श्रद्धा को सिद्धि तक बनाये रखना कठिन है। श्रद्धा परम आवश्यक होते हुए भी परम दुर्लभ है, इस तथ्य को अभिव्यंजित करते हुए कवि कहते हैं 'सद्धा परमदुल्लहा' उत्तर. ३/९ श्रद्धा परम दुर्लभ है। श्रद्धा की महिमा सर्वत्र अनुगूजित है। सत्य की प्राप्ति श्रद्धा से होती है। श्रद्धा के महत्त्व के विषय में आचार्य महाप्रज्ञ का चिंतन है-'श्रद्धा स्वादो न खलु रसितो हारितं तेन जन्मा अप्रमत्तता प्रमाद का अर्थ है - अपने स्वरूप की विस्मृति। मूल स्वरूप में स्थिर रहना अप्रमाद है। साधना के पथ पर आरूढ़ साधक का पथ जागरण का पथ है, उत्थान का पथ है। उसमें यदि जरा भी शैथिल्य, असावधानी आ जाये सारा कार्य चौपट हो जाता है। लक्ष्य के वेधन के लिए कर्त्तव्य पथ पर स्थिर रहना आवश्यक है। अतः अपेक्षित है प्रज्ञाशील सदा जागरूक रहे - 'भारंडपक्खी व चरप्पमत्तो' उत्तर. ४/६ भारण्ड पक्षी की भांति अप्रमत्त होकर विचरण करें। अप्रमत्तता का संदेश लगभग सभी दर्शनों ने दिया है। 'स्वे गये जागृह्यप्रयुच्छन्' अर्थात् किसी भी प्रकार का प्रमाद न करते हुए अपने घर में सदा जागृत रहे। मुण्डकोपनिषद् में कहा है- 'अप्रमत्तेन वेद्धव्यं शरवत्तन्मयो भवेत'" बाण के समान तन्मय होकर पूर्ण सावधानी के साथ लक्ष्य का वेधन करना चाहिए। तात्पर्य है-परम के साक्षात्कार के लिए अप्रमाद श्रेष्ठ साधन है। साधना का विघ्न : काम-भोग काम विकृति जनक है। काम-भोगों से मोह उत्पन्न होता है। मोह से वैषयिक आसक्ति बढ़ती है। व्यक्ति अपना भान भूल जाता है। काम-भोग जन्म-मरण के संवर्धक, मोक्ष के विपक्षी तथा अनर्थो की खान है। अतः कहा गया 'सव्वे कामा दुहावहा' उत्तर. १३/१६ सब काम-भोग दुःखकर है। उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे 69 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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