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पुरे पुराणे उसुयारनामे खाए समिद्धे सुरलोगरम्म।। उत्तर. १४/१
इषुकार नामक एक नगर था-प्राचीन, प्रसिद्ध, समृद्धिशाली और देवलोक के समान।
मृगापुत्र के प्रासाद का वर्णन पाठक के सामने प्रासाद' के दृश्य को उकेर देता है -
मणिरयणकुट्टिमतले पासायालोयणट्ठिओ। आलोएइ नगरस्स चउक्कतियचच्चरे।। उत्तर. १९/४
मणि और रत्न से जड़ित फर्श वाले प्रासाद के गवाक्ष में बैठा हुआ मृगापुत्र नगर के चौराहों, तिराहों और चौहट्टों को देख रहा था।
यहां मणि व रत्न से जड़ा आंगन सहृदय की आंखों में प्रासाद की भव्यता को उपस्थित कर देता है, जिसे देख वह रम्यता का अनुभव करता
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मृगापुत्र श्रमण को देख अपने अतीत का साक्षात कर लेता है तथा भावों की निर्मलता का चित्र दृष्टि में उतार लेता है
तं देहई मियापुत्ते दिट्ठीए अणिमिसाए उ। कहिं मन्नेरिसं रूवं दिट्ठपुव्वं मए पुरा|| उत्तर. १९/६
मृगापुत्र ने श्रमण को अनिमेष-दृष्टि से देखा और मन ही मन चिन्तन करने लगा-मैं मानता हूं कि ऐसा रूप मैंने पहले कहीं देखा है।
यहां मृगापुत्र का रुचिर-बिम्ब गम्य है। यह अनिमेष दृष्टि ऊहापोह करते हुए पाठक को भी जातिस्मरण ज्ञान कराने में निमित्त बन सकती है।
उत्तराध्ययन के अनेक प्रसंग रूप बिम्ब की पूर्णता में परिणत हैं। राजीमती का अप्रतिम सौन्दर्य पाठक के सामने उसके रूप सौन्दर्य को साक्षात रूपायित कर देता है
अह सा रायवरकन्ना सुसीला चारूपेहिणी। सव्वलक्खणसंपुन्ना विज्जुसोयामणिप्पभा। उत्तर. २२/७
वह राजकन्या सुशील, चारू-प्रेक्षिणी, सत्रियोचित सर्वलक्षणों से परिपूर्ण और चमकती हुई बिजली जैसी प्रभा वाली थी।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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