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निष्कर्ष
उत्तराध्ययन में प्रयुक्त प्रतीकों का शैलीवैज्ञानिक अध्ययन रचनाकार की प्रतीक-निर्मिति का अभिनव आयाम प्रस्तुत करते हैं। कवि कल्पना से नि:सृत कुछ नए प्रतीक यहां भी प्रयुक्त हुए हैं। एक ओर कवि-कल्पना वस्तु जगत पर प्रतीकत्व का आरोप करती है तो दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के अन्य स्रोतों के प्रतीकों के संग्रहण से भाषिक संरचना में नवीनता तथा रोमांचकता बढ़ जाती है। ऐसे प्रतीक भी हैं जो साहित्य जगत में अल्प-प्राप्त या अप्राप्त हैं - यह ऋषि की सृजनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। इस प्रकार बहुविध प्रतीक प्रयोग में रचनाकार सफल रहे हैं। बिम्ब
बिम्ब कवि-मानस के चित्र एवं साहित्य के प्राण तत्त्व हैं, काव्यभाषा के अन्तरंग सहचर हैं । बिम्ब एक अमूर्त विचार अथवा भावना की पुनर्रचना है। यह पूर्णतः मानसिक व्यापार है और मस्तिष्क की आंखों से दिखाई देता है। शेक्सपियर ने कवि द्वारा अपने विचारों को उदाहृत, सुस्पष्ट एवं अलंकृत करने के लिए प्रयुक्त एक लघु शब्द चित्र को बिम्ब कहा है। कवि वर्ण्य विषय को जिस ढंग से देखता, सोचता या अनुभव करता है, बिम्ब उसकी समग्रता, गहनता, रमणीयता एवं विशदता को अपने भावों एवं अनुषंगों के माध्यम से पाठक तक सम्प्रेषित करता है। बिम्ब में चित्रात्मकता और इन्द्रियगम्यता आवश्यक है। नगेन्द्र के अनुसार काव्यबिम्ब शब्दार्थ के माध्यम से कल्पना द्वारा निर्मित एक ऐसी मानस छवि है, जिसके मूल में भाव की प्रेरणा रहती है।° वस्तुस्थिति अनुभूति दृश्य आदि की मानसिक प्रतिकृति प्रस्तुत करना बिम्ब है। किसी संवेग से उत्पन्न होकर उसी संवेग को पाठक के दिल में उत्पन्न कर देना बिम्ब की सफलता है।
बिम्ब की सत्ता विशेषण और क्रिया में रहती है। उपमा आदि अलंकारों के रूप में भी इनका अवतरण होता है।
काव्यवस्तु से कवि-मानस की तदाकारता बिम्बसर्जना की पहली शर्त है। इसके लिए काव्य के ऐन्द्रिय संवेगात्मक बोध तथा भावोद्रेककारी कल्पना-कौशल-इन दोनों की संयुति अपेक्षित है। इस प्रकार अमूर्त अनुभूतियों का मूर्तीकरण बिम्बात्मक भाषिक संरचना का प्रथम अनिवार्य पक्ष है तो उस
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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