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अन्त का तात्पर्य है भव या कर्मों का विनाश । उसको फलित करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है। यहां तात्पर्यार्थ के रूप में 'अन्त' शब्द मोक्ष का प्रतीक है। सप्पे (सर्प:)
दुर्व्यवहार, कटु भाषण, छल-कपट आदि की प्रस्तुति के लिए ‘सर्प' प्रतीक प्रयुक्त होता रहा है। उत्तराध्ययन के ऋषि ने इस प्रचलित प्रतीक को गंधासक्ति की अभिव्यंजना हेतु अपनी काव्य-भाषा का उपकरण बनाया है -
गंधेसु जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं। रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते॥
उत्तर. ३२/५० जो मनोज गंध में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही जैसे विनाश को प्राप्त होता है जैसे नाग दमनी आदि औषधियों के गंध में गृद्ध बिल से निकलता हुआ रागातुर सर्प।
प्रत्यक्षत: सर्प दूसरों का घातक होता हुआ भी यहां गंध में आसक्त होता हुआ स्वयं ही अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। इंदियचोरवस्से (इन्द्रियचोरवश्य:)
विषयों में प्रवृत इन्द्रिया भीतर बैठे चैत्यपुरुष को सुला देती है। अत: यहां चोर के प्रतीक के रूप में 'इन्द्रिय' शब्द का प्रयोग नवीनतम है
कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छाणुतावे य तवप्पभावं। एवं वियारे अमियप्पयारे आवज्जई इंदियचोरवस्से॥
उत्तर. ३२/१०४ 'यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा' – इस लिप्सा से कल्प/योग्य शिष्य की भी इच्छा न करें। तपस्या के प्रभाव की इच्छा न करें और तप का प्रभाव न होने पर पश्चात्ताप न करें। जो ऐसी इच्छा करता है वह इन्द्रियरूपी चोरों का वशवर्ती बना हुआ अपरिमित विकारों को प्राप्त होता है।
इन्द्रियां ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षायोपशमिक भाव हैं । जब वे राग-द्वेषात्मक प्रवृति में लिप्त हो जाती हैं तब मनुष्य का धर्मरूपी सर्वस्व छिन जाता है। अत: चोर के प्रतीक के रूप में इन्द्रियों का साभिप्राय प्रयोग उपयुक्त है। यह रूपकात्मक प्रतीक है।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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