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'तमंतमेणं' को एक शब्द तथा सप्तमी के स्थान पर तृतीया विभक्ति मानी जाए तो इसका वैकल्पिक अर्थ- अन्धकार से भी जो अति सघन अन्धकारमय हैं वैसे रौरव आदि नरक- होगा।
यहां 'तमं तमेणं' शब्द अन्धकारमय नरक का प्रतीक है। साहाहि रुक्खो (शाखाभिवृक्षो) पहीणपुत्तस्स हु णत्थि वासो वासिट्टि ! भिक्खायरियाइ कालो। साहाहि रुक्खो लहए समाहिं छिन्नाहि साहाहि तमेव खाणुं॥
उत्तर. १४/२९ पुत्रों के चले जाने के बाद मैं घर में नहीं रह सकता। हे वाशिष्ठि ! अब मेरे भिक्षाचर्या का काल आ चुका है। वक्ष शाखाओं से समाधि को प्राप्त होता है। उनके कट जाने पर लोग उसे ढूंठ कहते हैं।
प्रस्तुत प्रसंग में वृक्ष शब्द पुरोहित का प्रतीक है और शाखा शब्द पुरोहित पुत्रों का। वृक्ष शाखा से समाधि को प्राप्त होता है अर्थात् मेरे पुत्र संयम स्वीकार कर रहे है। शाखाएं मेरे से अलग हो रही हैं। कटी हुई शाखाओं वाला वृक्ष ढूंठ कहलाता है। प्रतीक- संकेत है कि मैं ढूंठ की तरह असहाय होकर नहीं जी सकता। सिरं (शिरः)
मानव जीवन के आध्यात्मिक लक्ष्य-प्राप्ति की व्यंजना इस प्रतीक के माध्यम से की है, जो व्यक्ति को जातिपथ/जन्ममरण के चक्कर से मुक्त कर शाश्वत स्थान पर प्रतिष्ठित करता है
तहेवुग्गं तवं किच्चा अव्वक्खित्तेण चेयसा। महाबलो रायरिसी अदाय सिरसा सिरं। उत्तर. १८/५०
इसी प्रकार अनाकुल चित से उग्र तपस्या कर राजर्षि महाबल ने अपना शिर देकर शिर/मोक्ष को प्राप्त किया।
कवि का वर्ण्य विषय यहां शिर नहीं, वह तो अप्रस्तुत है। प्रस्तुत हैवह उच्चतम स्थान जिसे प्राप्त कर व्यक्ति शाश्वत आनंद में रमण करने लगता है।
उत्तराध्ययन में प्रतीक, बिम्ब, सूक्ति एवं मुहावरे
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