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मूर्त के लिए मूर्त प्रतीक : जगई, लाढे, पत्तं, चेइए वच्छे, संखम्मि पयं, कंथए आसे, सूरे दढपरक्कमे, कुंजरे, वसहे, सीहे, वासुदेवे, चक्कवट्टी महिड्डिए, सक्के, दिवायरे, उडुवई चंदे, कोट्ठागारे, जंबू दुमे, सीया नई, मंदरे गिरी, सयंभूरमणे उदही, विहारं, तमं तमेणं, साहाहि रुक्खो, विज्जुसोयामणिप्पभा, भाणू, सारही, इंदियचोरवस्से। ४. लिंग के आधार पर
स्त्रीलिंग : जगई, दोगुंछी, सीया नई, कावोया वित्ती, विज्जुसोयामणिप्पभा।
पुल्लिग : मिए, लाढे, घयसित्त व्व पावए, भारुडपक्खी, चेइए वच्छे, कथए आसे, सूरे दढपरक्कमे, कुंजरे, वसहे, सीहे, वासुदेवे, चक्कवट्टी महिड्डिए, सक्के, दिवायरे, उडुवई चंदे, कोट्ठागारे, जंबू दुमे, मंदरे गिरी, सयंभूरमणे उदही, साहाहि रुक्खो, दुट्ठस्सो, भाणू, सारही, सप्पे, इंदियचोरवस्से। ____ नपुंसकलिंग : पत्तं, कुमुदं, संखम्मि पयं, विहारं, तमं तमेणं, सिरं, किंपागफलाणं, अन्तकिरियं ।
इसी प्रकार और भी विभाजन किया जा सकता है। उत्तराध्ययन के प्रतीक
उत्तराध्ययन में प्रयुक्त कुछ प्रतीकों का विश्लेषण यहां काम्य है। मिए (मृगः)
मृग इन्द्रियों में आसक्त मन का प्रतीक है। मृग शब्द के दो अर्थ हैं - हिरण व पश। उत्तराध्ययनकार ने पशु की लाक्षणिक विवक्षा से इस प्रतीक का प्रयोग अज्ञानी या विवेकहीन व्यक्ति के लिए किया है -
एवं शीलं चइत्ताणं दुस्सीले रमई मिए। उत्तर. १/५ अज्ञानी भिक्षु शील को छोड़कर दु:शील में रमण करता है।
यहां कवि-अभिप्रेत प्रतीक का भावार्थ है 'अज्ञानं सर्वपापेभ्य: पापमस्ति महत्तरम् '- क्रोध आदि सब पापों से भी अज्ञान बड़ा पाप है। अज्ञान महारोग है, कष्टकर है। अज्ञान रूपी पर्दे से आच्छादित व्यक्ति अपने हित-अहित को नहीं जान पाता।
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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