________________
प्रत्यय |
सुसाणे (२/२०) श्मशान के अर्थ में आर्ष प्रयोग ।
गणिणं, जडी (५/२१) प्राचीन प्रयोग |
आघायाय (५/३२) शतृ प्रत्यय के अर्थ में आर्ष प्रयोग ।
सव्वसो (६/११)–आर्ष प्रयोग के कारण तस् के स्थान पर शस्
वग्गूहिं (९/५५) आर्ष प्रयोग |
अहोत्था (२०/१९) अभूद् (संस्कृत)
आहंसु (२०/३१) अवोचम् (संस्कृत)
विप्परियासुवेइ (२०/४६ )
विप्परियासं + उवेइ- - यह सन्धि का अलाक्षणिक प्रयोग है ।
मणूसा (४/२), परत्था (४ /५), भवम्मी (१४ / १) - इनमें स्वर का दीर्घीकरण हुआ है।
कम्बोज (११/१६), पुरिमताल (१३/२), पिहुंड (२१/३), सोरियपुर (२२/१), द्वारका (२२/२७), वाराणसी (२५/१३) आदि अनेक देश तथा नगरों का भी विविधतापूर्वक वर्णन उत्तराध्ययन में प्राप्त है। भौगोलिक सामग्री विकीर्ण पड़ी है।
नियुक्तिकालीन व्याख्या -पद्धति का प्रमुख अंग निक्षेप-पद्धति का भी प्रयोग उत्तराध्ययन में हुआ है। अनेक अर्थ वाले शब्दों में अप्रस्तुत अर्थों का अग्रहण और प्रस्तुत अर्थ का बोध निक्षेप के द्वारा ही होता है। जैसे - संजोगा (१/१)
'यह मेरा है' - ऐसी बुद्धि संयोग है। यहां बाह्य संयोग (पारिवारिक) और आभ्यन्तर संयोग (विषय, कषाय आदि) का ग्रहण किया गया है। तत्कालीन सभ्यता एवं संस्कृति के बारे में भी विपुल सामग्री उत्तराध्ययन प्रस्तुत करता है -
दास भी कामनापूर्ति का हेतु था। (३/१७)
बाह्यवेश और आचार के आधार पर विरोधी मतवाद-मुण्ड और जटाधारी होने से धर्म, वस्त्र रखने से धर्म, नग्न रहने से धर्म आदि। (५/२१)
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
Jain Education International 2010_03
For Private & Personal Use Only
19
www.jainelibrary.org