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आनन्दवर्धन ने रीति को संघटना कहा। यथोचित घटना पदरचना का नाम संघटना है। संघटना माधुर्यादि गुणों को आश्रय करके रसों को अभिव्यक्त करती हैं, जिसके नियमन का हेतु वक्ता तथा वाच्य का औचित्य है।
प्रवृत्ति का सर्वप्रथम विवेचन भरत के नाट्यशास्त्र में मिलता है। भरत ने नाना देशों के वेश, भाषा तथा आचार का स्थापन करने वाली विशेषता को प्रवृत्ति कहा है। कालान्तर में अर्थ संकोच होता गया। आज प्रवृत्ति का प्रयोग सामान्यतः किसी समुदाय विशेष की किसी काल विशेष में व्याप्त सांस्कृतिक विशेषताओं अर्थात् उसकी रुचि, स्वभाव, परम्परा, खानपान, वेशभूषा, रहन-सहन और अन्य क्रियाकलाप की विशिष्टताओं के लिए किया जाता है। अतः प्रवृत्ति का संबंध एक ओर देश-विशेष से है तो दूसरी ओर कालविशेष से है।
आनन्दवर्धन ने रसादि के अनुकूल शब्द और अर्थ के उचित व्यवहार को आधार मानकर दो प्रकार की वृत्तियां मानी- अर्थ के व्यवहारानुसार भरत की कैषिकादि और शब्द के व्यवहारानुसार उद्भट आदि की उपनागरिका आदि। आनन्दवर्धन ने पदस्थितिप्रधान रचना के लिए 'संघटना' तथा वर्णस्थिति- प्रधान रचना के लिए 'वृत्ति' शब्द का प्रयोग किया है।४६
आधुनिक शैलीविज्ञान अपनी कृति-केन्द्रित, भाषा आधारित एवं वस्तुगत समीक्षा के बल पर पुनः विकसित हो रहा है। उसके मानक हैं-१. व्याकरण २. अभिधान कोष ३. छंद ४. अलंकार ५. साहित्य रीति सिद्धांत, काव्य के गुण-दोष उदात्तता, पदौचित्य आदि। प्रायः उसमें उपर्युक्त तत्त्व भी मौजूद है। संक्षेप में साहित्य में भाषागत विशिष्ट प्रयोगों का अध्ययन शैलीविज्ञान है।
शैलीविज्ञान अन्यथाकृत भाषा का अध्ययन करता है। इसी को डिफेमेलियराइजेशन (विपथन) कहा जाता है तथा भारतीय काव्यशास्त्र के आचार्य इसी को उक्ति विशेष या वक्रोक्ति कहते हैं। वक्रोक्ति के माध्यम से ही लोकप्रचलित भाषा अन्यथाकृत हो जाती है। उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान
किसी भी रचना की सार्थकता इस तथ्य में निहित है कि प्रतीयमान अर्थ की अभिव्यक्ति किस साधन और किस माध्यम से हो रही है, वही
उत्तराध्ययन में शैलीविज्ञान : एक परिचय
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