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श्रुति कहते हैं। जैन-परंपरा के अनुसार तीर्थंकर के मुख से संश्रृत वाणी को आगम कहते हैं।
भारतीय विचारधारा की प्रतिनिधि श्रमण-संस्कृति एवं वैदिक-संस्कृति के विशाल वाङ्गमय ने भारतीय जीवन के अनेक पक्षों को उद्घाटित किया है। वह हमारे देश की एक सांस्कृतिक निधि है। श्रमण-संस्कृति पुरुषार्थ प्रधान संस्कृति है। उसका स्पष्ट उद्घोष है कि आत्म-पुरुषार्थ ही आत्मउन्नति का, आध्यात्मिक प्रगति का हेतु है। क्योंकि आत्मा ही अपने सुखदुःख की कर्ता है और विकर्ता है। दुष्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही शत्रु है एवं सत्प्रवृत्ति में लगी हुई आत्मा ही मित्र है। उत्तराध्ययन में श्रेष्ठी-पुत्र अनाथी सभी त्रस-स्थावर जीवों के नाथ बन जाते हैं। आत्मकर्तृत्ववाद के आधार पर ही क्षान्त, दान्त, निरारम्भ होकर अनगार वृत्ति को स्वीकार करते हैं। उनकी आत्मकर्तृत्व की उद्घोषणा इन शब्दों में मुखर होती है
अप्पा कत्ता विकत्ता य दुहाण य सुहाण या अप्पा मित्तममित्तं च दुप्पट्टियसुपट्ठिओ।। उत्तर. २०/३७ इसी का संवादी स्वर हमें उपनिषद् में भी उपलब्ध होता है
आत्मा वा रे द्रष्टव्यः श्रोतव्यो मन्तव्यो निदिध्यासितव्यो....... अपने आपको देखो, अपने को सुनो, अपने आप का मनन करो, निदिध्यासन करो।
आत्मकर्तृत्व का यह सिद्धांत हजारों वर्ष पूर्व ब्रह्माण्ड में गूंजा था और आज भी उसकी ध्वनि-तरंगे जनमानस को अन्तःप्रेरणा दे रही हैं। अतः आगम-साहित्य का ज्ञान प्राप्त किए बिना धर्मदर्शन तथा भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का अध्ययन परिपूर्ण नहीं कहा जा सकता। उत्तराध्ययन आगमसाहित्य का ही एक प्रतिनिधि ग्रंथ है। इसके विषय विस्तृत एवं विविधता लिए हुए हैं। अर्धमागधी प्राकृत भाषा में निबद्ध उत्तराध्ययन ग्रंथ भारतीय चिन्तनधारा का नवनीत अपने में संजोये हए है, उसका आलोडन-विलोडन पूर्वक सूक्ष्म विश्लेषण अपेक्षित है।
उत्तराध्ययन को श्रमणाचार प्रधान आगम कहकर इसमें निहित अन्य तथ्यों को गौण कर देना उचित नहीं। श्रमण-जीवन में इसकी उपयोगिता निर्विवाद है। साथ ही इसमें वर्णित संस्कृति, साहित्य, शैली एवं नीति के तत्त्व भी अनुसंधान के लिए प्रेरित करते हैं। यद्यपि यह ग्रंथ धर्मकथानुयोग के
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