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२. दारुणा गामकंदगा (२/२५)
ग्रामकण्टक का सामान्य अर्थ है-ग्राम यानि समूह तथा कण्टक शब्द कांटा के लिए आता है। पर इसका अर्थ-विस्तार होकर यहां ग्राम शब्द इन्द्रिय-समूह के अर्थ में प्रयुक्त है। ग्रामकण्टक अर्थात् कानों में कांटों की भांति चुभने वाले इन्द्रियों के विषय, प्रतिकूल शब्द आदि। ये काटे इसलिए हैं कि ये दुःख उत्पन्न करते है और मोक्ष मार्ग में प्रवृत्त साधकों के लिए विघ्नकारी होते हैं।१८ ३. 'कावोया जा इमा वित्ती' (१९/३३)
कापोतीवृत्ति का सामान्य अर्थ कबूतर के समान वृत्ति है। वृत्तिकार ने इसका अर्थ किया है- कबूतर की तरह आजीविका का निर्वहण करने वाला। जैसे कापोत धान्यकण आदि को चुगते समय नित्य सशंक रहता है वैसे भिक्षाचर्या में प्रवृत्त मुनि एषणा आदि दोनों के प्रति सशंक होता है। अर्थसंकोच
अर्थविस्तार के विपरीत कुछ शब्दों के अर्थों में संकोच भी होता है। उनका विस्तृत अर्थ संकुचित हो जाता है। यास्क का कहना है-कई शब्दों का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ बहुत विस्तृत है, पर ये किसी विशेष अर्थ में रूढ़ हो गए हैं। अर्थसंकोच के अनेक उदाहरण उत्तराध्ययन में भी देखे जा सकते हैं। यथा१. गलियस्से (गल्यश्व) (१/१२)
व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ की दृष्टि से 'अश्नुते अध्वानम् इति अश्वः' सड़क पर चलने वाले को अश्व कहते हैं। अर्थसंकोच के कारण सड़क पर चलने वाले सभी को अश्व नहीं कह सकते। यहां भी 'अश्व' शब्द 'घोड़ा' इस सीमित अर्थ की अभिव्यक्ति देता है। २. संसारे (३/५)
संसरन्ति इति संसारः। इसका अर्थ है गतिशील, संसरणशील। पर यह शब्द जगत, संसार के अर्थ में रूढ़ हो गया है। ३. मणूसा (१/२)
इसका अर्थ होगा-'मननात् इति मनुष्यः' मनन या चिन्तन करने
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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