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यस्मिंस्तूच्चरितेष्शब्दे यदा योऽर्थः प्रतीयते। तमाहुरथं तस्यैव नान्यदर्थस्य लक्षणम्॥५
शब्द के द्वारा जिस अर्थ की प्रतीति होती है, उसे ही अर्थ कहते हैं। अर्थ का अन्य लक्षण नहीं है।
अर्थ का ज्ञान प्रत्य या प्रतीति के रूप में होता है। प्रतीति के दो साधन हैं-आत्म-प्रत्यक्ष और पर-प्रत्यक्ष। द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के आधार पर शब्द विशेष के अर्थ में परिवर्तन भी देखा जाता है। अर्थ-परिवर्तन तीन प्रकार का है
१. अर्थ-विस्तार (Expansion of Meaning) २. अर्थ-संकोच (Contraction of Meaning) 3. 379fag (Transference of Meaning)
उत्कर्ष व अपकर्ष के आधार पर इन्हें भी दो भागों में वर्गीकृत किया जाता है
१. अर्थोत्कर्ष २. अर्थापकर्ष
प्रस्तुत प्रसंग में उत्तराध्ययन में अर्थपरिवर्तन की दिशाएं विवेच्य हैं। अर्थ-विस्तार
कुछ शब्द मूल रूप में किसी विशेष या संकुचित अर्थ में प्रयुक्त होते थे। बाद में उनके अर्थ में विस्तार हो गया। यथा१. कुसला (१२/३८)
कुशल शब्द का अर्थ था 'कुशं लुनातीति कुशलः' जो कुश को काटता है वह कुशल है। कुश का अग्रभाग तीक्ष्ण होता है। उससे हाथ कटने का भय रहता है। इसलिए कुश लाना चतुरता का सूचक था। धीरे-धीरे कुशल शब्द 'कुश लाना' अर्थ को छोड़कर 'चतुरता', 'निपुणता' का अर्थ देने लगा। इस प्रकार इसके अर्थ में विस्तार हो गया। 'न तं सुदि8 कुसला वयंति' (१२/३८)-यहां 'कुशल' शब्द द्वारा ध्वनित होता है कि जो तत्त्वविचारणा में निपुण है वह कुशल है।
उत्तराध्ययन की भाषिक संरचना
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