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या तत्र स्यात् युवतिविषये: सृष्टिराद्यैव धातुः ॥ 'किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतिनाम् ॥
यक्षिणी ब्रह्मा की प्रथम सृष्टि थी तो राजीमती शकुन्तला की तरह निसर्ग रमणीया थी। शोकातुर राजकन्या
शिवा के अंगज अरिष्टनेमि के साथ राजीमती का विवाह निश्चित होता है। राजकन्या राजकुमार के रूप-गुण से अभिभूत थी। विवाह से पूर्व भय से संत्रस्त वध्य पशुओं का करुण क्रन्दन सुनकर महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि वापस मुड़ गये। प्रियतम के वापस मुड़ने तथा प्रव्रज्या की बात को सुनकर राजीमती शोक-स्तब्ध हो गई। वह उपने प्रियतम को आकृष्ट नहीं कर सकी और अपने जीवन को धिक्कारती हुई कहती है -- 'धिरत्थु मम जीवियं।' उत्तर. २२/२९ त्यागसंपन्ना
व्यक्ति का मनोरथ जब अनायास ही धराशायी हो जाता है, तब वह संसार से विरक्त होकर तप, व्रत की ओर अग्रसर होता है। अरिष्टनेमि द्वारा परित्यक्त राजीमती तत्काल पति मार्ग का अनुसरण कर उत्कृष्ट त्यागभावना का परिचय देती है- 'सयमेव लुचई केसे' राजीमती का यह रूप भव्य जीवों के लिए पथ-प्रदर्शक है। वासुदेव भी त्याग का अनुमोदन करते हुए आशीर्वादयुक्त वाणी में राजीमती से कहते है -
संसार सागरं घोरं तर कन्ने ! लहुं लहुं ॥ उत्तर. २२/३१ शीलसंपन्ना
रैवतक पर्वत पर अरिष्टनेमि को वंदना करने जाती हुई राजीमती वर्षा से भीग जाती है। गुफा में वस्त्रों को सुखाती है। उसी गुफा में स्थित रथनेमि राजीमती को यथाजात अवस्था में देखता है। दमित कामवृत्ति जाग उठती है। काम वासना से पीड़ित रथनेमि याचना करता है
'एहि ता भुंजिमो भोए माणुस्सं खु सुदुल्लहं' उत्तर . २२/३८
हिमालय की तरह संयम में स्थिर राजीमती गंभीर व प्रभावोत्पादक वाणी में संयम से विचलित रथनेमि को कठोर शब्दों में कहती है- हे यश: कामिन ! धिक्कार है तुझे। जो तू भोगी जीवन के लिए वमन की हुई वस्तु को
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
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