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करुणार्द्र हृदय
उत्तम ऋद्धि और द्युति के साथ विवाह के लिए प्रस्थित अरिष्टनेमि भय से संत्रस्त और पिंजरों में बंद प्राणियों को देखकर, सारथि से यह पता लगने पर कि ये जीव मेरे विवाह कार्य में लोगों का भोज्य बनेंगे - अत्यन्त उद्विग्न हो जीवों के प्रति करुणा से भावित महाप्रज्ञ ने चिंतन किया कि ऐसे विवाह से क्या, जो अनेक निरीह जीवों के वध का कारण बने । परलोक में यह मेरे लिए हितकर नहीं है -
इ मज्झ कारण एए हम्मिहिंति बहू जिया ।
न मे एयं तु निस्सेसं परलोगे भविस्सई | उत्तर. २२/१९
जीवों के आर्त्तनाद से द्रवित हो करुणेश लौट गए। 'उनके कर्ण दूसरों का अमंगल कर मंगल गीत सुनने को तैयार नहीं थे' इस कथ्य की विशद अभिव्यक्ति के लिए उत्तराध्ययनकार ने अरिष्टनेमि के चरित्र को उभारा है ।
दमीश्वर
'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना से भावित होकर लोकनाथ अरिष्टनेमि राज्य के नश्वर सुखों का परित्याग किया। उनका विरक्त मन प्राणी मात्र के अनन्त सुख की अन्वेषणा के लिए तत्पर हुआ । वासुदेव ने इसका अनुमोदन करते हुए कहा
इच्छियमणोरहे तुरियं पावेसू तं दमीसरा | उत्तर. २२/२५
दमीश्वर ! तुम अपने इच्छित मनोरथों को शीघ्र प्राप्त करो । स्वयं दीक्षित होकर बाईसवें तीर्थंकर के रूप में विश्व - विख्यात हुए ।
अरिष्टनेमि के विशेषण
विशुद्धि के परिचायक :
लोगनाह (लोकनाथ ) २२/४, दमीसरे (दमीश्वर) २२/४, महापन्ने (महाप्रज्ञ) २२ / २५, साणुक्कोसे (सकरुण) २२/१८, महायशा (महान यश वाले) २२/२०, लुत्तकेसं (केशलुंचन) २२/ २५, जिइंदियं (जितेन्द्रिय) २२/२५
गोत्र
गोमो (गौतम) २२ / ५, वण्हिपुंगवो (वृष्णिपुंगव ) २२ / १३
उत्तराध्ययन में चरित्र स्थापत्य
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