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मूलधन क्या ?
जहा य तिन्नि वणिया, मूलं घेत्तूण निग्गया। एगोऽत्थ लहई लाहं, एगो मूलेण आगओ॥ एगो मूलं पि हारित्ता, आगओ तत्थ वाणिओ। ववहारे उवमा एसा, एवं धम्मे वियाणह॥ उत्तर. ७/१४, १५
जैसे तीन वणिक पूंजी को लेकर निकले। उनमें से एक लाभ उठाता है, एक मूल लेकर लौटता है और एक मूल को भी गंवाकर वापस आता है- यह व्यापार की उपमा है। इसी प्रकार धर्म के विषय में जानना चाहिए। .
वणिक -पुत्रों के दृष्टान्त से जीवन के आध्यात्मिक पक्ष को उजागर करते हुए कवि का कहना है- कमाने के लिए परदेश गया हुआ एक वणिक्-पुत्र मूलपूंजी को बढ़ाकर आता है, एक कम से कम मूलधन को तो सुरक्षित रखता है और एक मूल को भी द्यूत, मद्य आदि के सेवन में लगा देता है। यहां हमारा मूलधन मनुष्यत्व है। प्रथम वणिक की तरह जो चारित्रिक गुणों से युक्त होता है वह मूलधन को बढाकर लाभ रूप देव गति को प्राप्त होता है। दूसरे वणिक की तरह जो संसार में रहकर भी संयम से जीवन यापन करता है वह अपने मूलधन की सुरक्षा करता है, मरकर पुनः मनुष्यभव धारण करता है। तीसरे वणिक की तरह जो हिंसा आदि में जीवन व्यतीत करता है वह मूल/मनुष्यत्व को भी गंवाकर निम्न गतिओं में भ्रमण करता रहता है।
उपर्युक्त दृष्टान्त से पुरुषों की तीन श्रेणियां दृष्टिगोचर होती हैं१. उत्तम
२. मध्यम ३. अधम उत्तम पुरुष मूलधन को सुरक्षित रखते हुए उसे और बढ़ा देता है। इस दृष्टान्त से उत्तम पुरुष के समान ही चरित्र ग्राह्य है-यह अभिव्यंजित हो रहा
जीवन की अनित्यता
जीवन की चंचलता, अस्थिरता के प्रतिपादन के लिए कुशाग्र पर स्थित ओस-बिन्दु का दृष्टान्त कवि-शब्दों में निर्दिष्ट है
कुसग्गे जह ओसबिंदुए थोवं चिट्ठइ लंबमाणए। एवं मणुयाण जीवियं समयं गोयम ! मा पमायए। उत्तर. १०/२
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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