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छन्द का सीधा सम्बन्ध रस या भाव से है। साहित्यशास्त्रियों ने प्रत्येक रस के लिए अलग-अलग छंदों का विधान किया है। लगता है हर युग में ऋषि भी छंद और रस-भाव के प्रगाढ़ सम्बन्धों से परिचित रहे हैं। इसलिए आगमों में भी भिन्न-भिन्न भावों तथा रसों के लिए भिन्न-भिन्न छंदों का प्रयोग मिलता है। उत्तरज्झयणाणि का अधिक भाग पद्यात्मक है। इसमें मात्रिक और वर्णिक दोनों प्रकार के छंद प्रयुक्त हुए हैं। मात्रिक
मात्राओं की गणना को मात्रिक छंद कहते हैं। एक मात्रिक वर्ण हस्व, द्विमात्रिक दीर्घ, त्रिमात्रिक प्लुत तथा स्वररहित व्यजन अर्द्धमात्रिक होता है।
उत्तराध्ययन में मात्रिक छन्दों में गाथा का प्रयोग प्राप्त है। गाथा छन्द
गाथा शब्द 'गाङ् गतौ', 'गै शब्दे' तथा 'गा स्तुतौ ४३ धातु से थकन् तथा स्त्रीलिंग में टाप् प्रत्यय करने पर निष्पन्न होता है। शब्दकल्पद्रुम में इसे ज्ञेयछन्द एवं वाङ्मयार्णव में वाणी और छंद के अर्थ में स्वीकृत किया है-'गाथा तु वाण्यामार्यायाम्पियलानुक्तनामसु।'४४
संस्कृत में गाथा छन्द को आर्या कहते हैं। जिसके प्रथम और तृतीय पद में बारह मात्राएं, दूसरे में अठारह तथा चतुर्थ पद में पंद्रह मात्राएं हों उसे आर्या कहते हैं
यस्याः पादे प्रथमे द्वादश मात्रास्तथा तृतीयेऽपि। अष्टादश द्वितीये चतुर्थक पचदश साऽऽा।। 'प्राकृतपैंगलम्' में गाथा का लक्षण इस प्रकार हैपढमं बारह मत्ता बीए अट्ठारहेहिं संजुता। जह पढमं तह तीअं दहपंच विहूसिआ गाहा॥
आख्यान, कथात्मक संवाद, चरित्र-सौन्दर्य एवं सिद्धांत-व्याख्या आदि में गाथा का प्रयोग किया जाता है।
उत्तराध्ययन में प्रयुक्त गाथाओं के कुछ चरणों में नौ, दस, ग्यारह आदि अक्षर हैं। महालक्ष्मी, सारंगिका, पाइत्ता, कमल आदि कई छन्द नव अक्षर वाले हैं। पर उनकी उनसे गण- संगति नहीं बैठती है, इसलिए उन्हें
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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