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राजीमती का अरिष्टनेमि के प्रति और रथनेमि का राजीमती के प्रति आकर्षण - ये दोनों उदाहरण अपुष्ट शृंगार या शृंगाराभास कहे जा सकते हैं। क्योंकि जिसमें आकर्षण होता है लेकिन भोग की प्राप्ति नहीं होती वह केवल आभास मात्र रह जाता है, रस दशा को प्राप्त नहीं होता।
रसाभास के ऐसे प्रसंग भी उत्तराध्ययन में उपलब्ध हैं। हास्य-रस
विकृत आकार, चेष्टा, वेश, वाणी आदि से हास्य-रस की उत्पत्ति होती है। इसका स्थायीभाव हास है।१७
जीवन के प्रति गम्भीर एवं मर्यादित दृष्टिकोण तथा धर्मप्रधान श्रमणकाव्य होने से उत्तराध्ययन में हास्य-रस का प्रयोग नहीं हुआ है। करूण-रस
इष्ट नाश व अनिष्ट की प्राप्ति से उत्पन्न होने वाला रस करुण-रस है'इष्टनाशादनिष्टाप्तौ शोकात्मा करुणोऽनु तम्। १८
भोज के अनसार जो रस मूर्छा को उत्पन्न करता है, विलाप को उत्पन्न करता है और चित्त में दु:ख उत्पन्न करता है, वह करुण रस कहलाता है।
मूर्छाविलापौ कुरुते कुरुते साहसे मनः।। करोति दुःखं चित्तेन योऽसौ करुण उच्यते॥९ ।।
भरत के अनुसार यह शाप और क्लेश में पड़े प्रियजन के वियोग, धननाश, वध, बंध, देश-निर्वासन, अग्नि में जलकर मरने या व्यसन में फंसने आदि विभावों से उत्पन्न होता है ।२०
अनुयोगद्वार के अनुसार प्रिय के विप्रयोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपातपुत्र आदि की मृत्यु और संभ्रम से करुणा-रस उत्पन्न होता है। शोक, विलाप, म्लानता और रुदन इसके लक्षण हैं। उत्तराध्ययन में करुण-रस
उत्तम ऋद्धि और उत्तम धुति के साथ विवाह के लिए प्रस्थित अरिष्टनेमि ने भय से संत्रस्त प्राणियों को देखा। सारथि से पूछा ये प्राणी पिंजरों में क्यों रोके हुए हैं ? सारथी ने कहा आपके विवाह कार्य में लोगों के भोज के लिए यहां रोके हुए हैं। जीव-वध-प्रतिपादक वचन सुनकर उनका हृदय करुणा से द्रवित हो उठा। सकरुण महाप्रज्ञ अरिष्टनेमि ने सोचा -
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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