SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 152
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ साक्षात्कार कर शब्दों को अभिव्यक्ति दी है। जीवन से जुड़ी विविध आनन्दानुभूतियां काव्य की भाषा में रस हैं। साहित्य में मान्य रसों के अनुरूप उत्तराध्ययन का रस-विश्लेषण यहां इष्ट है। श्रृंगार-रस भावों में जो उत्तम है, श्रेष्ठ है, उसे शृंग कहते हैं और जो सहृदय को उस दशा तक पहुंचा दे वह शृंगार है। साहित्य जगत में सर्वप्रथम आचार्य भरत ने श्रृंगार-रस को रति-स्थायी भाव से उद्भूत माना। श्रृंगार ही विश्व के समस्त शुचि, मेध्य, उज्जवल और दर्शनीय पदार्थों का उपमान हो सकता है। इसका वेश उज्जवल है। भोज का श्रृंगार स्त्री-पुरुषों का वासनात्मक प्रेम नहीं है, वह आत्मस्थित गुण विशेष है, रस्यमान होने के कारण रस है। भोज ने शृंगार रस के सम्बन्ध में यह एक बिल्कुल नवीन दृष्टि दी है, फलस्वरूप उन्होंने शृंगार रस को एक व्यापक भावभूमि पर प्रतिष्ठित कर दिया है। यह दृष्टि मूल रूप से तो सरस्वतीकण्ठाभरण में मिलती है, इस पर विस्तार से विवेचन शृंगार प्रकाश में उपलब्ध होता है। काव्य कमनीय तभी होता है, जब उसमें रस रहता है। कमनीयता के उस मूल तत्त्व को चाहे रस कहें, चाहे अभिमान कहें, अहंकार कहें या शृंगार कहें, कोई अन्तर नहीं पड़ता। यह शृंगार दृष्टि न जाने कितने जन्मों के पुण्यकर्मों और अनुभवों से प्राणी को सुलभ हो पाती है। यही वह अंकुर है जिससे आत्मा के सभी श्रेष्ठ गुण उद्भूत होते हैं। जिसके पास यह होती है - जो श्रृंगारी होता है, उसके लिए समस्त जगत रसमय हो जाता है। यदि वह अशृंगारी हुआ तो सब कुछ नीरस ही रहता है।६ उत्तराध्ययन में क्वचित् शृंगार-रस का भी वर्णन मिलता है - तस्स रूववइं भज्जं पिया आणेइ रूविणिं। पासाए कीलए रम्मे देवो दोगुंदओ जहा ॥ उत्तर . २१/७ उसका पिता उसके लिए रूपिणी नामक सुन्दर स्त्री लाया । वह दोगुन्दक देव की भांति उसके साथ सुरम्य प्रासाद में क्रीड़ा करने लगा। संयोग शृंगार के वर्णन में यहां रति स्थायी भाव है। रूपिणी का सौन्दर्य आलम्बन विभाव है। क्रीड़ा, भोग-सामग्री आदि उद्दीपन विभाव है। हर्ष, रोमांच आदि संचारी भावों से यहां संयोग-शृंगार-रस की निष्पत्ति हुई है। उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार 135 Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy