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________________ नाट्यशास्त्र में आठ स्थायी भाव स्वीकृत हैं - रति, हास, शोक, क्रोध, बीभत्स, भय, जुगुप्सा और विस्मय। विश्वनाथ ने स्थायी भावों की संख्या नव बताईरति सश्च शोकश्च क्रोधोत्साहौ भयं तथा । जुगुप्सा विस्मयश्चेत्यमष्टौ प्रोक्ता: शमोपि च ॥ विभाव रति आदि स्थायी भावों की उत्पत्ति के कारण को विभाव कहते हैं। ये रस को विशेष रूप से अनुभूति योग्य बनाते हैं। विश्वनाथ के अनुसार लोक में जो पदार्थ रति आदि को उद्बोधित करते हैं, उनको काव्य या नाटक में विभाव कहा जाता है -'रत्याधुबोधका लोके विभादा: काव्यनाट्ययोः।” इसके दो भेद हैं- आलंबन और उद्दीपन। जिस पर भाव या रस अवलंबित रहता है, उसे आलंबन कहते हैं - यमालंब्य रस उत्पद्यते स आलंबन विभावः। रस को उद्दीप्त या तीव्र करने वाले विभाव को उद्दीपन विभाव कहते हैं - यो रसमुद्दीपयति स उद्दीपन विभावः। आलम्बन यदि आग लगाने वाला अंगारा है तो उद्दीपन अनुकूल हवा की तरह उसे बढ़ाने में योग देता है। वर्षा के बीच आग बुझ जाती है, वैसे उद्दीपन की प्रतिकूलता में आलम्बन का प्रभाव नष्ट हो जाता है। अनुभाव रस का कार्य अनुभाव है। यह अनुभूति को अभिव्यक्ति देने का साधन है। आलम्बन व उद्दीपन से जिसमें भाव उत्पन्न होते हैं उसे 'आश्रय' कहते हैं। हृदयगत भावों से आश्रय की शारीरिक, मानसिक अवस्था में परिवर्तन होता है उसके द्योतक चिह्नों को अनुभाव कहा जाता है। धनंजय ने भाव को सूचित करने वाले विकार को अनुभाव कहा- अनुभावो विकारस्तु भावसंसूचनात्मकः। संचारीभाव . संचारी व व्यभिचारी शब्द समानार्थक हैं। मन के क्षणिक भाव को. व्यभिचारी भाव कहते हैं। ये संचरणशील व अस्थिर मनोविकार हैं जो विविध 130 उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन For Private & Personal Use Only Jain Education International 2010_03 www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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