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परवर्ती आचार्यों ने इस रस-सूत्र के आधार पर अनेक मत स्थापित किये। उनमें प्राचीन आचार्यों में भट्ट-लोल्लट (उत्पत्तिवाद), श्रीशंकुक (अनुमितिवाद), भट्टनायक (भोगवाद), अभिनव-गुप्त (अभिव्यक्तिवाद) तथा आधुनिक आचार्यों में रामचन्द्र शुक्ल, श्यामसुन्दरदास, नगेन्द्र, गुलाबराय आदि उल्लेखनीय हैं।
भरत के रस-सूत्र से रस-स्वरूप के निम्न तथ्यों का प्रतिपादन होता है• रस अनुभूति का विषय है किंतु वह स्वयं अनुभूति नहीं है।
अपने स्वतंत्र अस्तित्व के बावजूद भी विभाव, अनुभाव आदि रस में विलीन हो जाते हैं और रस स्वतंत्र इकाई के रूप में प्रकट होता है। रस के विभिन्न अवयवों, अभिनयों द्वारा संयुक्त होकर स्थायी भाव ही रस-रूप में परिणत होता है। अनेक भावों के योग से रसोत्पत्ति होती है। सुसंस्कृत अन्न को खाकर व्यक्ति प्रसन्न होता है वैसे ही भावों और अभिनयों से युक्त स्थायी भाव का आस्वादन कर दर्शक
आनंद- समुद्र में सरोबार हो जाता है। रस -सामग्री
स्थायीभाव, विभाव, अनुभाव और संचारी भाव रस के प्रमुख अवयव हैं। स्थायी भाव
रसानुभूति का आभ्यन्तर कारण स्थायी भाव है। यह वासना रूप में सहृदय के हृदय में विद्यमान रहता है तथा अनुकूल संयोगों से इसे अभिव्यक्त होने का अवसर मिल जाता है। स्थायी भावों को सर्वभावों में महान कहा गया है। आचार्य विश्वनाथ ने लिखा है -
अविरुद्धा विरुद्धा वा यं तिरोधातुमक्षमाः । आस्वादांकुर-कंदोऽसौ भाव: स्थायीति सम्मतः ॥
जिसे विरोधी या अविरोधी भाव अपने में तिरोहित करने में अक्षम होते हैं और जो आस्वाद का मूल होता है, उसे स्थायी भाव कहते हैं। श्री-रूप गोस्वामी ने स्थाई भाव को 'उत्तम राजा' की संज्ञा से अभिहित किया है।
उत्तराध्ययन में रस, छंद एवं अलंकार
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