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उसका भय हमेशा बना रहता है कि उसे कोई चुरा नहीं ले जाये। कामभोग क्षणिक सुख देने वाले पर परिणाम में दुःखदायी होने से दुःखकर है।
इस प्रकार परमार्थ में सांस लेने वाले व्यक्ति का काम-भोगों के प्रति कैसा दृष्टिकोण होता है, इस बात का सहज-स्वाभाविक चित्रण इस गाथा में कथित चार बातों से हुआ है।
नापुट्ठो वागरे किंचि पुट्ठो वा नालियं वए। कोहं असच्चं कुव्वेज्जा धारेज्जा पियमप्पियों उत्तर. १/१४
बिना पूछे कुछ भी न बोलें। पूछने पर असत्य न बोलें। क्रोध आ जाए तो उसे विफल कर दें। प्रिय और अम्रिय को धारण करें-राग और द्वेष न करें।
विनीत शिष्य को कर्त्तव्य का निर्देश तथा शिक्षा देते हुए कहा गया-'नापुट्ठो वागरे किंचि' बिना पूछे कुछ भी न बोले अर्थात् गुरु जब तक 'यह कैसे?' ऐसा न पूछे तब तक शिष्य कुछ भी न बोले। इस वाक्य से यह भी प्रकट हो रहा है कि गुरु ही नहीं, बिना पूछे कहीं भी और कभी भी कुछ न कहे। 'कोहं असच्चं कुव्वेज्जा' क्रोध को असत्य कर दे। मोहनीय कर्म की विद्यमानता में क्रोध का उदय भी संभाव्य है, सर्वत्र उसे सफल करना उचित नहीं- इस प्रकार औचित्यपूर्ण वाक्यों का यहां प्रयोग हुआ है।
नमि राजर्षि ने यौवनावस्था में ही प्रचुर कामभोगों को छोड़ संयम स्वीकार किया। देवेन्द्र ने परीक्षण करना चाहा। अनेक तर्क-वितकों के बावजूद भी राजर्षि को विचलित न होते देख उनकी त्याग-भावना से अभिभूत हो नमि की स्तुति करते हुए इन्द्र कहता है -
अहो! ते निजिओ कोहो, अहो! ते माणो पराजिओ। अहो! ते निरक्किया माया, अहो! ते लोभो वसीकओ।।
उत्तर. ९/५६ हे राजर्षि! आश्चर्य है तुमने क्रोध को जीता है! आश्चर्य है तुमने मान को पराजित किया है! आश्चर्य है तुमने माया को दूर किया है! आश्चर्य है तुमने लोभ को वश में किया है!
भोग-प्रधान संसार में प्राप्त-भोग का तरुण-वय में परिहार भोगासक्त
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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