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होता है, वहां उपसर्ग-वक्रता होती है। उत्तराध्ययन का प्रसंग इस संदर्भ में द्रष्टव्य है -
रहनेमी अहं भद्दे सुरूवे! चारुभासिणि।। ममं भयाहि सुयणू! न ते पीला भविस्सई। उत्तर. २२/३७
भद्रे! मैं रथनेमि हूं। सुरूपे! चारूभाषिणि! तू मुझे स्वीकार कर। सुतनु! तुझे कोई पीड़ा नहीं होगी।
कामासक्त रथनेमि स्वयं को अंगीकार करने के लिए राजीमती को सुरूवे!, सुयण! आदि सम्बोधनों से याचना कर रहा है। कर्मधारय और बहुव्रीहि समास बनाने के लिए संज्ञा शब्दों से पूर्व सु जोड़ा जाता है, विशेषण और क्रियाविशेषणों में भी जुड़ता है।६३
यहां सुरूवे, सुयणू में 'सु' उपसर्ग के द्वारा राजीमती का शरीरसौन्दर्यातिशय अभिव्यंजित है। उसके शारीरिक सौन्दर्य के आधार पर रथनेमि का आकर्षण भी अभिव्यक्त होता है।
जहा अग्गिसिहा दित्ता पाउं होइ सुदुक्करं। तह दुक्करं करेउं जे तारुण्णे समणत्तण।। उत्तर. १९/३९
जैसे प्रज्वलित अग्निशिखा को पीना बहुत ही कठिन कार्य है वैसे ही यौवन में श्रमण-धर्म का पालन करना कठिन है।
दुस् उपसर्ग 'बुराई', 'कठिनाई' का अर्थ प्रकट करने के लिए स्वरादि तथा घोषवर्णादि से आरम्भ होने वाले शब्दों से पूर्व लगाया जाता है। यहां सु, दुस् उपसर्ग श्रमण-धर्म के पालन की, संयमजीवन के स्वीकार की अत्यधिक कठिनता को व्यक्त कर रहा है। निपात-वक्रता
निपात का एक अर्थ है-अव्यय, वह शब्द जिसके और रूप न बने।६४
जहां निपात भाव-विशेष की व्यंजना द्वारा रसद्योतन में सहायक होता है, वहां निपातवक्रता होती है।
निपातस्वरादयोऽव्ययम्'६५ निपात की अव्यय संज्ञा होती है। व्याकरण की दृष्टि से वह शब्द जिसके रूप में वचन, लिंग आदि के कारण कोई विकार नहीं होता -
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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