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प्रत्यय-वक्रता
जब कवि प्रत्ययों से भिन्न एक प्रत्यय में अन्य प्रत्यय को लगाकर सौन्दर्य की सृष्टि करे तो प्रत्यय-वक्रता होती है। इसमें सामान्यतः प्रत्ययों के चमत्कार पर बल दिया जाता है। प्रत्यय जब अपूर्व रमणीयता करे तो यह वक्रता होगी।
विहितः प्रत्ययादन्यः प्रत्ययः कमनीयताम्। यत्र कामपि पुष्णाति सान्या प्रत्ययवक्रता।।५१ उत्तराध्ययन में प्रत्यय-वक्रता - देवत्तं माणुसत्तं च जं जिए लोलयासढे। उत्तर. ७/१७ लोलुप और वंचक पुरुष देवत्व और मनुष्यत्व से पहले ही हार जाता
देव शब्द दिव् धातु से अच् प्रत्यय करने पर बनता है। पहले से ही अच् प्रत्यय विद्यमान है, उसके बाद 'त्व' (प्राकृत त्त) प्रत्य लगा है।
मानुष शब्द में अप् और सुक् (स) प्रत्यय की विद्यमानता में ही त्व प्रत्यय और लगाकर शब्द-सौन्दर्य में अभिवृद्धि की गई है और यह शब्द : मनुष्य-भाव का अभिधायक शब्द है।
'उवसंत मोहणिज्जो, सरई पोराणियं जाइं।। उत्तर. ९/१ नमि राजा का मोह उपशांत था, इसलिए उसे पूर्वजन्म की स्मृति हुई।
यहां 'पोराणियं' शब्द प्रत्यय-वक्रता की दृष्टि से विचारणीय है। पुराण शब्द से इक प्रत्य करने पर पौराणिक शब्द बनता है। प्राकृत में पोराणिय तथा द्वितीया एकवचन में पोराणियं बनता है। उपसर्ग-वक्रता
जब उपसर्ग का चमत्कारपूर्ण प्रयोग शब्द एवं अर्थ की रमणीयता विधायक हो तो उपसर्ग-वक्रता होती है। वक्रोक्तिकार के शब्दों में -
रसादिद्योतनं यस्यामुपसर्गनिपातयोः।। वाक्यैकजीवितत्वेन सापरा पदवक्रता।।२ जहां भावविशेष की व्यंजना द्वारा उपसर्ग भी रसद्योतन में सहायक
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उत्तराध्ययन का शैली-वैज्ञानिक अध्ययन
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