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मलपंकपूर्वकम् -मलश्च पंकश्च इति मलपंकौ तौ पूर्वी यस्य तत् मलपंकपूर्वकम्। यहां द्वन्द्व समास तथा बहुब्रीहि का प्रयोग से विनीत शिष्य की सर्वत्र पूज्यता तथा अन्तिम फल स्वरूप शाश्वत सिद्धि की प्राप्ति लक्षित है।
'भोगामिसदोसविसण्णे हियनिस्सेयसबुद्धिवोच्चत्थे।' (उत्तर. ८/५)
अर्थात् आत्मा को दूषित करने वाले आसक्तिजन्य भोग में निमग्न हित और निःश्रेयस् में विपरीत बुद्धि वाला यहां भोगामिषदोषनिषण्ण :-भोगाश्च आमिषः इति भोगामिषः, भोगाभिषदोषे विषण्णः इतिभोगामिषदोषविषण्णः -यहां षष्ठी तत्पुरुष, सप्तमी तत्पुरुष समास प्रयुक्त है।
व्यत्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धि :-हितञ्च निःश्रेयसश्च इति हितनिःश्रेयसौ, हितनिःश्रेयसयोर्बुद्धिः हितनिःश्रेयसबुद्धिः व्यत्यस्ता हितनिःश्रेयसबुद्धिर्यस्य स व्यत्यस्तहितनिःश्रेयसबुद्धिः। द्वन्द्व, षष्ठी तत्पुरुष तथा बहुब्रीहि का प्रयोग अज्ञानी की भोगासक्ति तथा मोक्ष से विपरीत आचरण के प्रसंग में समासवृत्ति- वैचित्र्यवक्रता के रूप में दर्शनीय है। लिंग-वैचित्र्य वक्रता
यह वक्रता लिंग-परिवर्तन के द्वारा उत्पन्न होती है। भाषा में सौन्दर्य उत्पन्न करने हेतु एक ही वस्तु के लिए एक साथ भिन्न-लिंगीय शब्दों का प्रयोग तथा जो मानवीय भाव या क्रिया जिस लिंग के व्यक्ति के स्वभाव से अधिक अनुरूपता रखती है उस भाव या क्रिया के प्रसंग में उसी लिंग वाले शब्द का प्रयोग भी लिंग-वैचित्र्य वक्रता है।४।।
पचिंदियाणि कोहं माणं मायं तहेव लोहं च। . दुज्जयं चेव अप्पाणं सव्वं अप्पे जिए जिय।। उत्तर. ९/३६
पांच इन्द्रियां, क्रोध, मान, माया, लोभ और मन-ये दुर्जेय हैं। एक आत्मा को जीत लेने पर ये सब जीत लिए जाते हैं।
यहां कोहं, माणं आदि में- पुल्लिग के स्थान पर नपुंसकलिंग का प्रयोग लिंग-वैचित्र्य वक्रता जन्य चमत्कार उपस्थित करता है।
क्रोध आदि आत्मा के बाहर के धर्म है, आत्मधर्म नहीं। इनका नपुंसकलिंग में परिवर्तन बाहरी धर्म की अभिव्यंजना के लिए हुआ है।
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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