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धीर पुरुष एकान्त दृष्टिमय अहेतुकों में अपने आपको कैसे लगाए ? जो सब संगों से मुक्त होता है वह कर्म रहित होकर सिद्ध हो होता है ।
यहां 'धीर' विशेषण बुद्धि परिपूर्णता गुण की अभिव्यंजना कर रहा है। धी उपपद पूर्वक 'रा दाने' एवं 'ईर गतौ ० धातु से धीर शब्द बनता है। ‘धियं राति इति धीरः' जो बुद्धि देता है, बुद्धि से व्याप्त रहता है वह धीर है तथा ‘धियमीरयति इति धीरः ' जो धी में गमन करता है, वह धीर है।
आवश्यक चूर्णिकार ने कहा - ' धीः बुद्धिस्तया राजन्त इति धीराः जो बुद्धि से राजित होता है वह धीर है।
‘विकारहेतौ सति विक्रियन्ते येषां न चेतांसि त एव धीराः ४२ विकार का हेतु उपस्थित होने पर भी जिसके चित्त में विकार उत्पन्न नहीं होता वह धीर है।
निष्कर्षतः जो बुद्धिमान है, दूरदर्शी है, स्वस्थ चित्त है वह धीर है । राजा संजय के लिए प्रयुक्त धीर विशेषण उसकी चैतसिक - अविकार्यता अभिव्यंजित कर रहा है।
वहां राजा ने संयत, मानसिक समाधि से सम्पन्न, वृक्ष के पास बैठे हुए सुकुमार और सुख भोगने योग्य साधु को देखा।
यहां साधु के लिए प्रयुक्त 'संजय' तथा 'सुकुमालं' विशेषण ध्यातव्य
हैं।
संजयं
तत्थ सो पासई साहुं, संजयं सुसमाहियं ।
निसन्नं रुक्खमूलम्मि, सुकुमालं सूहोइयं । उत्तर. २०/४
,४३
संयत कौन होता है? चूर्णिकार के अनुसार 'समं यतो संयतो " जो समग्ररूप से यत्नवान है वह संयत है। 'सम्यक् यतते सदनुष्ठानं प्रतीति संयत: ४४ अर्थात् जो सद् अनुष्ठान के प्रति सम्यक् यत्न करता है, वह संयत
है।
यहां साधु मोक्षमूलक अनुष्ठान के प्रति जागरूक है, यत्नशील है। इसलिए 'संजय' विशेषण साध्वोचित है।
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