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'मेरा धावित्ता मेहाविणो'३३ जो मर्यादापूर्वक चलते हैं वे मेधावी हैं। संसार में यश उसी का फैलता है, सर्वपूज्य वही होता है जो सद्गुणों को धारण करने में समर्थ हो। विनय, मर्यादा तथा गुरु के अनुशासन में समर्पित हों। यहां सद्गुणों को धारण करना, कर्तव्य-अकर्तव्य के विवेक से संपन्न होना, अनुशासन प्रिय होना, मर्यादा में चलना इन अर्थों की अभिव्यंजना में मेधावी शब्द समर्थ है।
अधुवे असासयंमि, संसारंम्मि दुक्खपउराए। किं नाम होज्ज तं कम्मयं, जेणाहं दोण्इं न गच्छेज्जा|| उत्तर. ८/१
अध्रुव, अशाश्वत और दुःखबहुल संसार में ऐसा कौन सा कर्म/ अनुष्ठान है, जिससे मैं दुर्गति में न जाऊं?
प्रस्तुत गाथा में संसार के अधुवे, असासयंमि, दुक्खपउराए-इन तीन विशेषणों का साभिप्राय प्रयोग हुआ है। इन विशेषणों से चलचित्र की भांति संसार का दृश्य आंखों के सामने आ जाता है।
'अधुवे' विशेषण से संसार की अनिश्चितता एवं चंचलता का प्रतिपादन हो रहा है।
राज्य, धन, धान्य, परिवार आदि की क्षणिकता तथा दृश्यमान जगत की क्षणभंगुरता ‘असासयंमि' विशेषण से प्रकट हो रही है।
'दुक्खपउराए' विशेषण दुःख स्वरूप संसार की प्रतीति कराने में समर्थ है। संसार के ये विशेषण वैराग्य के हेतु बनकर संसार की व्यर्थता का निरूपण कर रहे हैं।
महाजसो एस महाणुभागो घोरव्वओ घोरपरक्कमो या उत्तर.१२/२३
यह महान यशस्वी है। महान अनुभाग (अचिन्त्य शक्ति) से सम्पन्न है। घोर व्रती है। घोर पराक्रमी है।
यहां महाजसो, महाणुभागो, घोरव्वओ, घोरपरक्कमो इन विशेषणों का साभिप्राय प्रयोग हरिकेशी मुनि के लिए किया गया है।
महाजसो : 'तिहुयणविक्खायजसो महाजसो'३४ जिसका यश त्रिभुवन में विख्यात है, वह 'महायशा' कहलाता है। 'अश्नुते व्यापनोति इति यशः'
उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति
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