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________________ जावज्जीवमविसामो गुणाणं तु महाभरो। गुरुओ लोहभारो व्व जो पुत्ता! होइ दुव्वहो || उत्तर. १९ / ३५ पुत्र ! श्रामण्य में जीवन पर्यन्त विश्राम नहीं है। यह गुणों का महान भार है। भारी भरकम लोहभार की भांति इसे उठाना बहुत ही कठिन है। यहां मूर्त पदार्थ लोहे के धर्म का अमूर्त संयम जीवन पर आरोपण श्रामण्य जीवन की कठोरता का अभिव्यंजन करने में समर्थ हुआ है। उपशम की कठिनता का उद्घाटन कर उस पर रत्नाकर के धर्म का आरोप किया गया है जहा भूयाहिं तरिउं, दुक्करं रयणागरो । तहा अणुवसंतेण, दुक्करं दमसागरो । उत्तर. १९ / ४२ जैसे समुद्र को भुजाओं से तैरना बहुत ही कठिन कार्य है, वैसे ही उपशमहीन व्यक्ति के लिए दमरूपी समुद्र को तैरना बहुत ही कठिन कार्य है। उत्कृष्ट एवं उपयुक्त साधन के बिना साध्य की सिद्धि नहीं होती है - यह सात्विक सत्य बोध्य है। मूर्त के साथ मूर्त के धर्म का प्रयोग जहा से सयंभूरमणे उदही अक्खओदए । नाणारयणपडिपुणे एवं हवइ बहुस्सुए || उत्तर. ११/३० जिस प्रकार अक्षय जल वाला स्वयंभूरमण समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरा हुआ होता है, उसी प्रकार बहुश्रुत अक्षय ज्ञान से परिपूर्ण होता है। यहां सागर के धर्म का बहुश्रुत पर आरोप उसकी अनन्त / विशाल ज्ञान की विशिष्टता को उजागर कर रहा है। केशी कुमारसमणे गोयमे व महायसे । उभओ निसण्णा सोहंति चंदसूरसमप्पभा || उत्तर. २३/१८ चन्द्र और सूर्य के समान शोभा वाले कुमार- श्रमण केशी और महान यशस्वी गौतम दोनों बैठे हुए शोभित हो रहे थे। यहां पर चन्द्रमा और सूर्य दो आकाशीय पदार्थों के धर्म का मुनिद्वय पर आरोप किया गया है। इस वक्रता से मुनिद्वय की शारीरिक दीप्ति के साथ-साथ आत्मिक सौन्दर्य भी द्योतित हो रहा है। उत्तराध्ययन में वक्रोक्ति Jain Education International 2010_03 For Private & Personal Use Only 3335 93 www.jainelibrary.org
SR No.002572
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayana Sutra ka Shailivaigyanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmitpragyashreeji
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2005
Total Pages274
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_related_other_literature
File Size10 MB
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